Jeete Jee Allahabad

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Jeete Jee Allahabad

Jeete Jee Allahabad

199.00 149.00

In stock

199.00 149.00

Author: Mamta Kaliya

Availability: 2 in stock

Pages: 192

Year: 2021

Binding: Paperback

ISBN: 9789390971916

Language: Hindi

Publisher: Rajkamal Prakashan

Description

जीते जी इलाहाबाद

जीते जी इलाहाबाद सिर्फ संस्‍मरणात्‍मक कृ‌ति नहीं है, एक यात्रा है जिसमें हमें अनेक उन लोगों के शब्दचित्र मिलते हैं जिनके बिना आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं लिखा जा सकता और जो उस समय के इलाहाबाद के मन-प्राण होते थे।

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Paperback

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2021

Pulisher

1 review for Jeete Jee Allahabad

  1. 4 out of 5

    rahuldadda

    “पढ़ लिए हो? तो बताओ का लिखा है!”
    अल्हड़ता और बेफिक्री से भरा हुआ ये शहर यही पूछेगा अगर हमने बता दिया कि हमने पढ़ ली ‘जीते जी इलाहाबाद’.
    अगर एक शीर्षक दे पाता तो मैं कहता Discovery of Allahabad. ऐसा ही कुछ हुआ था जब मैंने नेहरू जी की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पढ़ी थी. हिंदुस्तान में पैदा हुआ, RSS द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ा पर देश की आत्मा और देश को समझने के लिए नेहरू जी की किताब बहुत काम आयी। उसी तरह जैसे इलाहाबाद में पैदा हुआ, पला बढ़ा, खूब पढ़ा, इश्क़ किया, मार खाई, हताश हुआ और एक दिन निकल गया उस शहर से. मैं बहुत से रिश्तों से निकला हूँ पर फ़िल्म इंस्टिट्यूट, पुणे और इलाहाबाद मेरी वो मोहब्बत हैं कि जिनसे जितना दूर जाता हूँ प्यार बढ़ता ही जाता है इसीलिए मैं अपने इश्क को यूं ही बरकारर रखना चाहता हूँ, इनसे दूर रहकर. रोज़ सपनों में अपना इलाहाबाद देखता हूँ, कभी एलनगंज का बाल भवन तो कभी करेलाबाग में मौसी का घर, कुछ महीनों पहले जिस घर में मेरी पैदाइश हुई थी, मुट्ठीगंज में, वो गिर गया। उस दिन रोना आ गया ऐसा लगा कि मैं बेघर हो गया और सच कहूँ मुझे अपना पता तो मिल गया है मुम्बई में, लेकिन पते में अपनापन कभी नहीं मिलेगा जैसा 624 मुट्ठीगंज बोलने में आता था.
    ममता जी ने तो जैसे नया इलाहाबाद ही दिखा दिया, ऐसा रूमानी माहौल कि लगने लगा- हम इलाहाबाद में रहे भी थे कि नहीं?
    और इसी बात पे मुझे मेरी और तिग्मांशू धूलिया जी की एक बहस याद आ गयी. हम दोनों की एक मूक प्रतियोगिता बनी रहती थी कि कौन बड़ा इलाहाबादी? हम आज तक बातचीत में ‘हम’ बोलते हैं और तिग्मांशू सर ‘मैं’ और उनको इस बात की भनक है कि हम आने आपको विशुध्द इलाहाबादी मानते हैं और इसलिए वो कोई मौका नहीं छोड़ते थे हमसे बहस का।
    उस दिन मुझे बड़ा गुस्सा सा आया था जब हम दोनों साथ व्हिस्की पी रहे थे और उन्होंने कुछ बोला इलाहाबाद-सिविल लाइन्स-खूबसूरत लड़कियों के बारे में। मेरे चेहरे के भाव देखकर उनको लगा मौका है और बोल पड़े- अबे तुम इलाहाबाद में रहे भी हो कि नहीं ?
    बस हम भी ठसक गए और सुना दिया।
    “आपने इलाहाबाद देखा है सर्किट हाउस से खड़े होकर और हमने देखा है मुट्ठीगंज की पतली गलियों से इसलिये आपको शायद मेरा इलाहाबाद समझ न आये और हमको आपका. आपके पापा जज थे और मेरे ITI फैक्ट्री में कामगार, हम दोनों का vantage point बहुत अलग है”
    उनको भी थोड़ा अटपटा लगा मेरा गुस्सा और बोले- दिखा दिए अपनी बकैती!
    ये वाक़्या मुझे याद आया किताब पढ़ते हुए कि कैसे कॉफी हाउस में लेखक लामबंद होते थे एक दूसरे के खिलाफ, कोई दुर्भावना नहीं पर अपना भोकाल बरकरार रहना चाहिए।
    यही होता है अगर सच्चे इलाहाबादी को चुनौती दे दी जाए उसके इलाहाबाद से संबंध पे, पर ममता जी ने इलाहाबाद से अपने रिश्ते को हर कोण से खंगाला यहाँ तक की अपनी सास का दृष्टिकोण भी दिखाया। इतने महान साहित्यकारों के नज़रिए से भी. हर नज़रिए से इलाहाबाद को देखना और बार बार सोचना कि ये इलाहाबाद मुझे क्यों नहीं दिखा?
    व्यक्तिगत प्रसंगों को इतनी ईमानदारी से पढ़कर मैंने अपनी पत्नी को दिखाया कि कैसे औरत चाहे लेखिका हो या एक साधारण गृहिणी, वो रिश्तों को बुनकर रखना जानती है। प्रसून जी के दुस्साहस को इतनी सहजता से जी जाना और उस पर विवाद का सौंदर्य बोध, मैं विस्मृत होता गया पन्ने दर पन्ने।
    सबसे रोचक है दिग्गज लेखकों को साहित्य की दुनिया से परे एक इंसान की तरह समझना, उनके झक्कीपन को कला से नक़ाब से ढकना नहीं बल्कि उनके मानवीय पक्ष को यूं बताना जिसे कि पड़ोस में रहने वाला कोई अतिसाधारण व्यक्ति। सबसे बड़ी विडम्बना तो तब लगी जब मैंने अमरकान्त जी के बारे में पढ़ा। अमरकान्त जी अपने बेटे और बहू के साथ गोविंदपुर में मेरे छोटे चाचा के घर किरायेदार बन रहते थे। मैं उनको कई बार मिला पर इंजीनियरिंग की परीक्षा में असफलता के चलते बाप की निगाहों में इतना गिरा हुआ था कि उन महान साहित्यकार से कभी बात नहीं कर पाया।
    परिवार का तुर्रा यही होता है- किसी काम के हो नहीं अब बैठक करोगे और कहानी लिखोगे?
    जिस तरह से मेरे पिता ने उनकी आर्थिक स्थिति का वास्ता देते मुझे भयाक्रांत किया था मेरी सीमित सामाजिक समझ उनका सानिध्य नहीं पा सकी। किताब पढ़ते हुए मुझे बहुत अफसोस हुआ और लगा जैसे मुझसे कोई अपराध सा हो गया।
    मैंने अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा द्वारा लिखित the last bungalow भी पढ़ी। वैसे तो उसको पढ़कर भी बहुत रोमांच आया पर हरि के समोसे और दमालू को AC रेस्त्रां में bone china के बर्तनों में परोस दीजिये, जो स्वाद मिलेगा वैसा ही स्वाद इलाहाबाद के बारे में अंग्रेज़ी में पढ़कर मिलता है। ग़ालिब को क्यों चिढ़ थी मेरे शहर से आज तक नहीं समझ पाया और ममता जी ने रूमानियत से इतना सराबोर कर दिया कि मेरा इश्क़ और मुकम्मल हो गया।
    फ़िल्म की भाषा में इसे non linear structure कहते हैं और वैसा ही होता है सपनों का होना, कोई तारतम्य नहीं होता और इसलिये सपने खूबसूरत होते हैं, समय काल की सततता से परे इस इलाहाबाद की आत्मकथा को इलाहाबाद ने ममता कालिया जी के हाथों लिखवाया है और ये हम सबका सौभाग्य कि इलाहाबाद की हवा को शहर से सैकड़ों, हज़ारों किलोमीटर दूर हम तक पहुंचाकर ममता जी ने हम इलाहाबादियों की उम्र कुछ साल और बढ़ा दी ।


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