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Description
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ज्वाला और जल
हरिशंकर परसाई की आरम्भिक रचनाओं में से एक है जिसके केन्द्र में एक ऐसा युवक है जो समाज के निर्मम धपेड़ों से धीरे धीरे एक अमानवीय अस्तित्व के रूप में परिवर्तित हो जाता है। पर प्रेम और सहानुभूति के सानिध्य में वह एक बार फिर कोमल मानवीय सम्बन्धों की ओर लौटता है। उपन्यासिका में फ्लैश बैक का सटीक उपयोग हुआ है जिससे नायक विनोद के विषय में पाठकों की जिज्ञासा लगातार बनी रहती है। विनोद की कथा मानवीय स्थितियों से जूझते हुए एक अनाथ और अवारा बालक की हृदयस्पर्शी कथा है जिसे हरिशंकर परसाई की कालजयी कलम ने एक ऐसी ऊँचाई दी है जो उस समय के हिन्दी साहित्य में दुर्लभ थी।
ज्वाला और जल से प्रतीत होता है कि अपने लेखन के प्रारम्भ से ही हरिशंकर परसाई कभी भी कोरे आशीर्वाद का महिमा गान के लिए लेखन को माध्यम नहीं बनाते, बल्कि समाज की वास्तविक परिस्थिति की परतों को उजागर करते हुए पाठकों के सोचने समझने के लिए एक बड़ी जमीन छोड़ देते हैं। उनकी अन्य रचनाओं की तरह यह उपन्यास भी इसका अपवाद नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण पहलू जो आज भी पाठकों को आकर्षित करता है वह यह है कि रचना के किसी मोड़ पर कोई भी पात्र जिस रूप में भी सामने आता है उसे अन्त तक पाठक घृणा नहीं कर सकते। प्रेमचन्द की विरासत लिए हरिशंकर परसाई प्रेमचन्द को दोहराते नहीं हैं बल्कि एक नई दिशा भी देते है जो न केवल समकालीन और सार्थक है, बल्कि परसाई के बोध को चिह्नित करते हैं।
प्रस्तुति
‘ज्वाला और जल’ प्रख्यात व्यंग्यकार स्व. हरिशंकर परसाई की एक ऐसी उपन्यासिका है जो घृणा पर प्रेम की विजय को बड़ी आत्मीयता और सहजता से रेखांकित करती है। यह उपन्यासिका ‘अमृत पत्रिका’ के दीपावली विशेषांक में कभी छपी थी। मुद्रित प्रति में कहीं भी प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं है। परन्तु यह परसाई के युवाकाल की एक महत्त्वपूर्ण रचना प्रतीत होती है। जाने कैसे इसका प्रकाशन न तो किसी पुस्तक में हुआ और न परसाई की अन्य उपन्यासिका की तरह इसकी स्वतन्त्र पुस्तक ही छपी। यह उनकी ग्रन्थावली में भी नहीं है। ज्ञानपीठ को ‘ज्वाला और जल’ की प्रति जर्जर अवस्था में मिली थी, जिसका कुछ हिस्सा दीमक खा चुकी थी। पूरी उपन्यासिका में ऐसी आठ-दस पंक्तियाँ ही होंगी। अन्तराल को अनुमान से पढ़कर रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है और इन पूर्तियों को इटालिक्स में दिया गया है।
भारतीय ज्ञानपीठ को परसाई की इस सुन्दर उपन्यासिका को पहली बार पुस्तकाकार प्रकाशित करते हुए प्रसन्नता है। हिन्दी संसार को भी एक शीर्षस्थानीय लेखक की खो गई सुन्दर कृति की पुनर्प्राप्ति का रोमांच होगा। यह कृति हमें श्री प्रकाश चन्द्र दुबे और श्री ज्ञानरंजन के सौजन्य से प्राप्त हुई है। हम उनके कृतज्ञ हैं।
प्रभाकर श्रोत्रिय
निदेशक
ज्वाला और जल
अब्दुल…नहीं नहीं..विनोद-
लेकिन विनोद भी कैसे ? न अब्दुल, न विनोद-उसे न अब्दुल नाम से याद कर सकता हूँ न विनोद से। हाँ, यह है कि वह अब्दुल था, पर उतना ही सही यह भी है कि वह विनोद भी था। लेकिन न वह केवल अब्दुल था, न विनोद। ब्रह्मा के तीन मुख और शंकर के पाँच मुखों की कल्पना इसलिए की गयी मालूम होती है कि एक ही व्यक्ति में एक से अधिक व्यक्तित्व समाए रहते हैं। वह कभी उनमें से एक होता है, कभी दूसरा। जिस आदमी की कहानी कह रहा हूँ, उसकी प्रतिमा अगर बने तो उसके दो मुख हों-अब्दुल और विनोद। गर्दन ऐंठ कर चलनेवाला, बात की बात में तमाचा जड़ देनेवाला, उद्धत, झगड़ैल गुण्डा-अब्दुल। और सन्ताप से त्रस्त पीड़ा से क्षत-विक्षत ग्लानि से गलित टूटा हुआ, भू-नत-विनोद।
उसकी कल्पना ही विरोधों की कल्पना है।
बहुत योग किये जिन्दगी की राह पर। कई साथ चले; कई हाथ में हाथ डाल साथ चल रहे हैं। कई ऐसे भी, जो अचानक किसी पगडण्डी से आ मिले और फिर न जाने कब किसी पगडण्डी से चुपचाप चल दिये। मैं पुकारूँ तब तक वे किसी झुरमुट में विलीन ! हम थोड़ी देर आवाज लगाकर, आसपास निगाह डाल चल देते हैं-हमें तो खो जाना नहीं है, हमें तो राजमार्ग छोड़ना नहीं है। पर कुछ ऐसे होते हैं, राजमार्ग की चिकनाहट जिनके पाँवों को पसन्द नहीं होती। वे ऊबड़-खाबड़ में भटकते हैं, घायल होते हैं, गिरते हैं, लहूलुहान होते हैं और राह पर रक्त के अंक उछालते चलते हैं।
वह इसी तरह एकाएक किसी पगडण्डी से आकर मिल गया था। कुछ दूर साथ चला और फिर खिसक गया। मैं तो उसी असंख्य पैरों से कुचले, घिसे-पिटे चिकने राजमार्ग पर चल रहा हूँ। वकालत पहले करता था, अब भी करता हूँ। पहले तीन बच्चे थे, अब पाँच हैं। हर साल दीवाली पर घर की पुताई कराता था, अब भी कराता हूँ। हर साल पितरों का श्राद्ध करता था, अब भी करता हूँ। वही मकान, वही मुहल्ला, वही शहर; वे ही रास्ते। घर, कचहरी, क्लब ! चोरी, जालसाजी, मारपीट लेन-देन बेदखली कुर्की वही मुकदमे।
Additional information
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Authors | |
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Binding | Paperback |
Language | Hindi |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher |
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