- Description
- Additional information
- Reviews (0)
Description
काल के हस्ताक्षर
कोयलिया मत कर पुकार
आज से कोई तीस वर्ष पूर्व मेघाच्छन्न श्रावणी सन्ध्या स्मृतिपटल पर उतर आती है। महाराज ओरछा का दरबार-हाल, मखमली सोफो पर बैठे स्वयं महाराज, उनका परिवार मित्र। हाथी-दाँत की मेज पर धरा ग्रामोफोन और उस पर बज रहा बेगम अख्तर का एकदम ताजा रिकार्ड -‘छा रही काली घटा जिया मेरा लहराए है।’ उस जादुई कंठ से लहराती ‘देश’ की वह अनूठी बन्दिश आकाश की काली घटा को जैसे सचमुच ही उस राजसी कक्ष में खींचकर, श्रोताओं को रसारिक्त कर गई थी। कैसी तड़प थी। उस आवाज में, कैसी टीस ! ‘बेवफा से दिल लगाकर क्या कोई फल पाए है !’’
यह मेरा सौभाग्य है कि उस जादुई कंठ की स्वरलहरी ने मुझे तीस वर्ष पूर्व मन्त्रमुग्ध किया था, उस कंठ का आकर्षण आज भी मेरे लिए वैसा ही बना मेरी लेखनी को गतिशील बना रहा है। जहाँ तक गजल, ठुमरी एवं दादरा का प्रश्न है, स्वर-लय की ऐसी उत्कृष्ट, सम्पन्न गायकी का परिचय अन्य कोई भी गायिका शायद आज तक नहीं दे सकी है। ऐसी सहज स्वाभाविकता, स्वर-लय का ऐसा अपूर्व समन्वय सर्वोपरि उनके कंठ की एक सर्वथा निजी मौलिकता प्रस्तुतीकरण के बीच स्वयं ही आकर छिटक गया एक मीठी टहूक-सा स्वर-भंग जो शायद अन्य किसी भी गायक या गायिका के लिए उसकी गायिकी का दोष बन सकता था, उनकी गायकी का एक अनूठा नगीना बन गया है।
महाराष्ट्र के श्री वामनाराव देशपांडे भारत के प्रसिद्ध संगीतविद हैं। उन्होंने स्वयं विधिवत् ग्वालियर, किराना एवं जयपुर, तीनों घरानों की संगीत–शिक्षा प्राप्त की है। उनके मतानुसार पटियाला घराने का स्थान, जयपुर एवं किराना के मध्य स्थिति है। किराना की विशिष्टता है, सामान्य-सा नक्की स्वर, साथ ही आवाज में एक विचित्र–सी खराश, जिसका अपना एक निजी आकर्षण रहता है। स्वर की यह मिठास किसी रेशमी नाजुक तागे की भाँति खिंचती, और सुननेवालों को भी साथ-साथ खींचती चली जाती है- यह रेशमी डोर, जिस अनूठी कशीदाकारी का जाल बिखेरती चली जाती है, उससे बँधा श्रोता सबकुछ भूल-बिसकर रह जाता है। उधर जयपुर घराने की उन्होंने सर्वश्रेष्ठ माना है- किसी सुदक्ष भास्कर की गढ़ी मूर्ति-सा ही दोषरहित। स्वर-लय का सुठाम सामंजस्य, विकार की छंदमयी गति और मनोरंजकता इस गायकी की सुस्पष्ट छाप है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उनके गुरु थे पटियाला के प्रसिद्ध गायक मुहम्मद अता खाँ और वहीद खाँ।
बेगम अख़्तर का जन्म फैजाबाद में हुआ। उनके बैरिस्टर पति श्री इश्तियाक अहमद अब्बासी साहब के शब्दों में ‘‘इनकी ये खुशकिस्मती थी कि घर रखाइश और सहन-सहन पुराने जमाने की थी, इन्हें घर ही में तमीज़दारी और इखलाक की तामील मिली वालिद सैयद असगर हुसैन साहब एक अच्छे शायर थे, वालदा पढ़ी-लिखी तमीज़दार मिलनसार थीं सारा शहर जिनकी सखावत से फायदा उठाता था।’’
बालिका अख़्तरी को बचपन से ही संगीत से कुछ ऐसा लगाव था कि जहाँ गाना होता, छुप-छुपकर सुनती और नकल करती। घरवालों ने पहले तो उसे रोकना चाहा; पर समुद्र की उत्तुंग तरंगों को भला कौन रोक सकता था। यदि कोई चेष्ठा भी करता तो शायद लहरों का यह सशक्त ज्वारभाटा उसे भी ले डूबता। उधर फैजाबाद के हालात भी कुछ ऐसे ही हो गये थे कि उनकी वालदा उन्हें मजबूरन वहां से लेकर कलकत्ता और बिहार के बीच रहने लगीं। देवदत्त प्रतिभा-सम्पन्न किशोरी अख़्तरी ने फिर संगीत के जिस प्रथम सोपान पर पैर धरा, वहाँ से वह नीचे नहीं उतरी। स्वयं वाग्देवी ही प्रसन्न होकर, उस जिह्वा पर अपना चक्रआँक गयीं। अख़्तरी की रुचि का रुझान ठुमरी दादरा, गजल की ही ओर अधिक था; किन्तु वह जानती थी कि इसे कहने में सरल संगीत के पोहचें की पकड़ के लिए पहले उन्हें ख्याल गायकी की ही बाँह पकड़नी होगी।
Additional information
Authors | |
---|---|
Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2021 |
Pulisher |
Reviews
There are no reviews yet.