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कालञ्जयी : सन्त साधक कथा प्रसंग
दो शब्द
काल के प्रवाह का अगर अध्ययन किया जाए तो बहुत ही महत्वपूर्ण बातें सामने आती है। देखा जाये तो जहां अन्य सभ्यताएं नष्ट हो गई या परिवर्तन के प्रवाह में विलीन हो गई। पिछले पांच हजार वर्षो में ऐसा ही देखने को मिला। लेकिन भारतीय सभ्यता जो मिस्र और बेबीलोन सभ्यता के समकालीन मानी जाती है आज भी जीवित है। ऐसा नहीं है कि भारतीय वैदिक सभ्यता को नष्ट करने का प्रयास ही नहीं किया गया। लेकिन भारतीय सभ्यता अपने मूल से नहीं भटकी। भाषा, विचार और प्रथाएं हम पर प्रभाव डालने में पूर्ण सफल नहीं हुए। अगर अल्प सफलता मिली भी तो वह सतही रहीं। वह हमारी ऊर्जा और आगे बढ़ने की शक्ति जो अनेक प्रहारों को झेला लेकिन पुनः अपने मूल हिन्दुत्व को लेकर आगे बढ़ने लगा। अगर गम्भीरतापूर्वक देखा जाये तो हिन्दुत्व किसी विशेष जाति तथ्य पर आधारित धर्म नहीं है। यह मूल वैदिक आर्यो के आध्यात्मिक जीवन दर्शन है। उसका मूल तत्व अभी तक लुप्त नहीं हुआ है। वहीं रामायण और महाभारत महाकाव्य हिन्दू आदर्शो के प्रसार का जीवन्त वर्णन है।
हिन्दुत्व का मूल आधार आत्मचेतना का विकास है। हमारी चेतना उस परम आनन्द की प्राप्ति के लिए है। पूर्ण और अपूर्ण परस्पर विरोधी नहीं हैं। यहां तक की अद्वैत वेदान्त केवल इतना ही नहीं कहता कि सत्य और माया में विरोध है। वह यह कहता है कि ब्रम्ह हर जगह व्याप्त है और माया उसका विस्तार है। एक ब्रम्हज्ञानी संसार में रहता है और स्वतंत्रता में निवास करता है। उसके लिए आध्यात्मिक मुक्ति का स्थान जगत ही है। ब्रम्हाण्डीय प्रक्रिया किसी एक तत्व की पुनरावृत्ति मात्र नहीं है। आगे बढ़ने की गति है। आत्म विकास अथवा आत्म चेतना को निरन्तर उच्चतम् तक ले जाने की प्रक्रिया है। अभी हमारे सामने ऐसी बहुत सी आध्यात्मिक सभ्याताएं है जिन तक हम पहुंच नहीं पायें। तैत्तरीय उपनिषद में क्रमिक उन्नति की बात कही गई है। अगर हम इसे दूसरे शब्दों में व्यक्त करें तो मानव जीवन के इतिहास में मानव मस्तिष्क एक नवीन सृष्टि है। इसमें अपने आपको परिस्थितियों के अनुकूल ढाल लेने की एक विशेष क्षमता है। मनुष्य सहज ज्ञान और अपने अनुभव से सीख पाने में समर्थ होता। मनुष्य और पशु में यही अन्तर है। पशु अपना जो भी जीवन व्यतीत करता है। उसे भूलता भी जाता है और अनुभव से बहुत कम काम लेता है। यही कारण है कि पशु को प्रशिक्षण द्वारा ही प्रशिक्षित किया जाता है। यहीं मनुष्य अपने अतीत को याद रखता है और उसका उपयोग आगे करता रहता है। नीत्से का कहना है कि इस जगत में मानव सबसे लम्बी स्मृति वाला प्राणी है। उसकी स्मृति ही उसकी असली सम्पत्ति
है।
हम जिन सिद्धातों को अपने जीवन और सामाजिक जीवन में करते हैं वे उस वस्तु द्वारा नियत किए गये हैं। जिसे धर्म कहा जाता है यानि हमारी प्रकृति को नये रूप में ढालने की शक्ति है। धर्म के सहज नियम से हम बंधे रहते हैं। धर्म के अन्तर्गत उन अनुष्ठानों की धार्मिक गतिविधियॉं आती हैं जो मानव और मानवीय जीवन को गढ़ती है यानि व्यवस्थित करती है। देखा जाये तो मानव के अन्दर विभिन्न इच्छायें और कामनायें होती हैं। कुछ सहज होती है और कुछ होती है असहज। उन्हे सहज रूप से ढालना ही धर्म का प्रयोजन है। धर्म का सिद्धान्त हमें आध्यात्मिक वास्तविकताओं को मान्यता देने के श्रति सजग करता है। देखा जाये तो धर्म शब्द अनेकों अर्थों में महत्वपूर्ण है। धर्म ‘धृ धातु से बना है जिसका अर्थ है धारण करना, पुष्ठ करना आदि। यही वह मानदण्ड है जो विश्व को धारण करता है। किसी भी वस्तु का मूल तत्व वेदों में इस शब्द का प्रयोग विभिन्न धार्मिक विधियों के अर्थ में किया गया है।
वैदिक काल से हिन्दू धर्म को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार स्तम्भों पर स्थापित किया गया है। यह किसी अन्य धर्मों में देखने को नहीं मिलता। इसी कारण से हिन्दू धर्म की आध्यात्मिक विशालता का आभास होता है। जीवन एक है इसमें पारलौकिक और ऐहिक (सांसारिक) का कोई भेद नहीं है। दैनिक जीवन में अर्थ प्राप्त करने वाला कर्म (व्यापार) सच्चे अर्थों में ईश्वर की सेवा है। अर्थ, कर्म किसी तपस्या से कम नहीं है। देखा जाये तो हिन्दू धर्म तप को महत्व देता है। बस एक सामान्य रूप से और जीवन के सुखों के निष्प्रयोजन त्याग की प्रशंसा नहीं करता। उसका कहना है कि शारीरिक कल्याण और मानवीय कल्याण धर्म का एक आवश्यक अंग है और आनन्द भी इन्द्रिय सुख और आत्मिक सुख है। सम्पत्ति में स्वतः कोई पाप नहीं है। किसी व्यक्ति को सम्पत्ति बढ़ाना या उसके प्रयत्नों को हम बुरा नहीं कह सकते। बशतें उस सम्पत्ति का संग्रह असामाजिक न हो। वहीं हिन्दू धर्म कहता है सम्पत्ति (अर्थ) की इच्छा इसलिए की जाती है कि इससे सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक कर्त्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूर्ण करने में सहायता मिलती है। काम का महत्वपूर्ण अर्थ यह है कि उत्तम सन्तान की प्राप्ति है न कि भोग। प्रकृति के नियम के अन्तर्गत रहते हुए धर्म का मूल सिद्धान्त यह है कि आत्मा की उच्चावस्था को प्राप्त करना है।
किसी भी समाज में निरन्तर बने रहने हेतु परिवर्तन की शक्ति होनी चाहिए। देखा जाये तो किसी भी असभ्य समाज में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी शायद प्रगति की हो। इसके हजारों उदाहरण इतिहास में पड़े हैं। हमारा समाज परिवर्तन को कभी सन्देह की दृष्टि से नहीं देखता है। लेकिन विचार करने वाली बात यह है कि किसी भी देश काल में सभ्य समाज के लिए प्रगति और परिवर्तन ही उसकी गति का असली प्राण होता है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2015 |
Pulisher |
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