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Description
कलाओं की अंतर्दृष्टि
‘कलाओं की हमारी दृष्टि पर विदेशी प्रभाव इस कदर है कि हम अपने मूल में प्रायः झाँक ही नहीं पाते हैं। ब्रिटिश काल के बाद कलाओं में पश्चिम के सिद्धांतों, अवधारणाओं में ही कलाएँ समझी और परखी जाती रही हैं। यह पुस्तक इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इसमें कलाओं की भारतीय अंतर्दृष्टि पर मौलिक चिंतन और मनन है।
भारतीय मूर्तिकला, शिल्प, चित्रकला, संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु कलाओं के सूक्ष्म तत्वों में ले जाते हुए लेखक इनमें निहित आंतरिक उजास से पाठकों को जोड़ता है। यह पुस्तक भरतमुनि के नाट्यशास्त्र, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, शुक्रनीति आदि के महत्वपूर्ण संदर्भ लिये है। कलाओं में सौंदर्य बोध, कलाओं में श्लील-अश्लील, मूर्त-अमूर्त, योग के राग बोध, लोक और शास्त्रीय कलाओं के भेद के साथ ही इसमें कलाओं के अंतःसंबंधों और कला-संस्कृति की विचार विरासत पर लेखक की अपनी मौलिक स्थापनाएँ हैं।
भारतीय कलाओं में रमते, उनमें बसते हुए और उनकी मौलिकता पर विचार करते हुए पुस्तक के निबंध साहित्य, संस्कृति में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए ही नहीं, कला-शिक्षकों, शोधकर्ताओं के लिए भी समान रूप से उपयोगी हैं। पुस्तक की भाषा इतनी प्रवाहमय, लालित्य लिये है कि पढ़ते हुए पाठक लेखक के साथ अपने होने को निरंतर अनुभूत करता है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2023 |
Pulisher |
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