Kalika Puran

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Kalika Puran

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Author: Jwalaprasad Chaturvedi

Availability: 4 in stock

Pages: 448

Year: 2015

Binding: Hardbound

ISBN: 0

Language: Hindi

Publisher: Randhir Prakashan

Description

(ॐ)

।।कालिकायै विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि तत्रो घोरे प्रचोदयात्।।

 

कालिका पुराण

कालिका अवतरण वर्णन

पूर्ण रूप से एक ही निष्ठा मे रहने वाले हृदय से समन्वित योगियों के द्वारा सांसारिक भय और पीड़ा के विनाश करने के अनेकों उपाय किए गये हैं। ऐसे भगवान् हरि के दोनों चरण कमल सर्वदा आप सबकी रक्षा करें जो समस्त योगीजनों के चित्त में अविद्या के अन्धकार को दूर हटाने के लिए सूर्य के समान हैं तथा यतिगणों की मुक्ति का कारण स्वरूप हैं। विभु के जन्म में शुद्धि-कुबुद्धि के हनन करने वाली है और इन जन्तुओं के समुदाय को विमोहित कर देने वाली है; वह माया आपकी रक्षा करे। समस्त जगती के आदिकाल में विराजमान पुरुषोत्तम ईश्वर को (जो नित्य ही ज्ञान से परिपूर्ण हैं उनको) प्रणाम करके मैं कालिका पुराण का कथन करूँगा।

हिमालय के समीप में विराजमान मुनियों ने परमाधिक श्रेष्ठ मार्कडेण्य मुनि के चरणों में प्रणिपात करके उनसे कर्मठ प्रभृति मुनिगण ने पूछा था कि हे भगवन् ! आपने तात्विक रूप से समस्त शास्त्रों और अंगो के सहित सभी वेदों को सब भली-भाँति मन्थन करके जो कुछ भी साररूप था वह सभी भाँति से वर्णन कर दिया है। हे ब्रह्मन् ! समस्त वेदों में और सभी शास्त्रों में जो-जो हमको संशय हुआ था वही आपने ज्ञानसूर्य के द्वारा अन्धकार के ही समान विनिष्ट कर दिया है। हे द्विजों में सर्वश्रेष्ठ ! आपके प्रसाद अर्थात् अनुग्रह से हम सब प्रकार से वेदों और शास्त्रों में संशय से रहित हो गये हैं अर्थात् अब हमको किसी में कुछ भी संशय नहीं रहा है।

हे ब्रह्मण ! जो ब्रह्माजी ने कहा था वह रहस्य के सहित धर्म शास्त्र आपसे सब ओर से अध्ययन करके हम सब कृतकृत्य अर्थात् सफल हो गए हैं। अब हम लोग पुनः यह श्रवण करने की इच्छा करते हैं कि पुराने समय में काली देवी ने हरि प्रभु का जो परमयति और ईश्वर थे, उन्हें किस प्रकार से सती के स्वरूप से मोहित कर दिया था। जो भगवान् हरि सदा ही ध्यान में मग्न रहा करते थे, यम वाले और यतियों में परम श्रेष्ठ थे तथा संसार से पूर्णतया विमुख रहा करते थे, उनको संक्षोभित कर दिया था। अथवा प्रजापति दक्ष की पत्नियों में परम शोभना सती किस रीति से समुत्पन्न थी तथा पत्नी के पाणिग्रहण करने में भगवान शम्भु ने कैसे अपना मन बना लिया था ? प्राचीन समय में किस कारण से तथा किस रीति मे दक्ष प्रजापति के कोप से सती ने अपनी देह का त्याग किया था अथवा फिर वही सती गिरिवर हिमवान् की पुत्री के रूप में कैसे समुत्पन्न हुई ? फिर उस देवी ने भगवान् कामदेव के शत्रु श्री शिव का आधा शरीर कैसे आहृत कर लिया था ? हे द्विजश्रेष्ठ ! यह सभी कथा आप हमारे समक्ष विस्तार के साथ वर्णित कीजिये। हे विपेन्द्र ! हम यह जानते हैं कि आपके समान अन्य कोई भी संशयों का छेदन करने वाला नहीं है और भविष्य में भी न होगा सो अब आप यह समस्त वृतान्त बताने की कृपा कीजिए।

मार्कण्डेय जी कहा–आप समस्त मुनिगण अब श्रवण वह करिये जो कि मेरा गोपनीय से भी अधिक गोपनीय है तथा परम पुण्य-शुभ करने वाला, अच्छा ज्ञान प्रदान करने वाला तथा परम कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसे प्राचीन समय में ब्रह्माजी ने महान् आत्मा वाले नारद जी से कहा था। इसके पश्चात् नारद जी ने भी बालखिल्यों के लिए बताया था। उन महात्मा बालखिल्यों ने यवक्रीत मुनि से कहा था और यवक्रीत मुनि ने असित नामक मुनि को यही बताया था। हे द्विजगणों ! उन असित मुनि ने विस्तारपूर्वक मुझको बताया था और मैं अब पुरातन कथा को आप सब लोगों को श्रवण कराऊँगा। इसके पूर्व मैं इस जगत् के प्रति परमात्मा चक्रपाणि प्रभु को प्रणिपात करता हूँ। वे परमात्मा व्यक्त और अव्यक्त सत् स्वरूप वाले हैं–वहीं व्यक्ति के रूप से समन्वित हैं। उनका स्वरूप स्थूल है और सूक्ष्म रूप वाला भी है, वे विश्व के स्वरूप वाले वेधा हैं, वे परमेश नित्य हैं और उनका स्वरूप नित्य है तथा उनका ज्ञान भी नित्य है। उनका तेज निर्विकार है। वे विद्या और अविद्या के स्वरूप वाले हैं, ऐसे कालरूप उन परमात्मा के लिए नमस्कार है। परमेश्वर निर्मल हैं, विरागी हैं, व्यापी और विश्वरूप वाले हैं तथा सृष्टि (सृजन) स्थिति (पालन) और अन्त (संहार) के करने वाले हैं, उनके लिए प्रणाम है।

जिसका योगियों के द्वारा चिन्तन किया जाता है, योगीजन वेदान्त पर्यन्त चिन्तन करने वाले हैं, जो अन्तर में परम ज्याति के स्वरूप हैं उन परमेश प्रभु के लिए प्रणाम करता हूँ। लोकों के पितामह भगवान् ब्रह्माजी ने उनकी आराधना करके समस्त सुर-असुर और नर आदि की प्रजा का सृजन किया था। उन ब्रह्माजी से दक्ष जिनमें प्रमुख थे ऐसे प्रजापतियों का सृजन करके मरीचि, अत्रि, पुलह, अंगिरस, ऋतु, पुलस्त्य, वशिष्ठ, नारद, प्रचेतस, भृगु–इन सब दश मानस पुत्रों का उन्होंने सृजन किया था। उसी समय में उनके मानस से सुन्दर रूप वाली वरांगनाओं की समुत्पत्ति हुई थी। वह नाम से सन्ध्या विख्यात हुई थी, उसका सायं-सन्ध्या का यजन किया करते हैं। उस जैसी अन्य कोई भी दूसरी वरांगना देवलोक, मर्त्यलोक और रसातल में भी नहीं हुई थी। ऐसी समस्त गुण-गणों की शोभा से सम्पन्न तीनों कालों में भी नहीं हुई है और न होगी। वह स्वाभाविक सुन्दर और नीले केशों के भार से शोभित होती है। हे द्विज श्रेष्ठों ! वह वर्षा ऋतु में मोरनी की भाँति विचित्र केशों के भार से शोभाशालिनी थी। आरक्त और मलिक तथा कर्णों पर्यन्त अलकों से इन्द्र के धनुष और बाल चन्द्र के सृदश शोभायमान थी। विकसित नीलकमल के समान श्याम वर्ण से संयुक्त दोनों नेत्र चकित हिरनी के समान चंचल और शोभित हो रहे थे। हे द्विज श्रेष्ठों ! कानों तक फैली हुई स्वाभाविक चंचलता से संयुक्त परम सुन्दर दोनों भौहें थीं जो कामदेव के धनुष के सदृश नील थीं। दोनों भौहों के मध्य भाग से नीचे और निम्न भाग से विस्तृत और उन्नत नासिका थी जो मानों ललाट से तिल के पुण्य के ही समान लावण्य को द्रवित कर रही थी। उनका मुख रक्तकमल की आभा वाला और पूर्ण चन्द्र के तुल्य प्रभा से समन्वित था जो बिम्ब फल के सदृश अधरों की अरुणिमाओं और मनोहर शोभित हो रहा था। सौ सूर्य के समान और लावण्य के गुणों से परिपूर्ण मुख था। दोनों ओर से चिबुक (ठोड़ी) के समीप पहुँचने के लिए उसके दोनों कुच मानो समुद्यत हो रहे थे। हे विप्रगणों ! उस सन्धया देवी के दोनों स्तवन राजीव (कमल) की कालिका के समान आकार वाले थे, पीन और उत्तुग्ङ निरन्तर रहने वाले थे। उन कुचों के मुख श्याम वर्ण के थे जो कि मुनियों के हृदय को भी मोहित करने वाले थे। सभी लोगों ने कामदेव की शक्ति के तुल्य ही उस सन्ध्या के मध्यभाग को देखा था जिसमें वलियाँ पड़ रही थीं तथा मध्य भाग ऐसा क्षीण था जैसे मुट्ठी में ग्रहण करने के योग्य रेशमी वस्त्र था।

उनके दोनों ऊरुओं का जोड़ा ऐसा शोभायमान हो रहा था दो ऊर्ध्वभाग में स्थूल था और करभ के सदृश विस्तृत था और थोड़ा झुका हुआ हाथी की सूँड़ के समान था। जो अँगुलियों के दल में संकल कुसुमायुध अर्थात् कामदेव के तुल्य ही दिखलाई दे रहा था। उस सुन्दर दर्शन वाली, शरीर की रोमावली से आवृत मुख पर, जिसके पसीने की बूँदें झलक रही थीं, जो दीर्घ नयनों वाली, चारुहास से समन्वित, तन्वी अर्थात् कृश मध्य भाग वाली जिसके दोनों कान परम सुन्दर थे, तीन स्थलों में गम्भीरता से युक्त तथा छः स्थानों से उन्नत उसको देखकर विधाता उठकर हृदगत को चिन्तन करने लगे थे। वे सृजन करने वाले दक्ष प्रजापति मानस पुत्र मरीचि आदि सब उस परवर्णिनी को देखकर समत्सुक होकर चिन्तन करने लगे थे। इस सृष्टि में इसका क्या कर्म होगा अथवा यह किसकी वर-वर्णिनी होगी। यही वे सभी बड़ी ही उत्सुकता से सोचने लगे थे। हे मुनि सत्तमों ! इस तरह से चिन्तन करते हुए उन ब्रह्माजी के मन से वल्गु पुरुष आविर्भूत होकर विनिःसृत हो गया था।

वह पुरुष सुवर्ण के चूर्ण के समान पीली आभा से संयुक्त था, परिपुष्ट उसका वक्ष स्थल था, सुन्दर नासिका थी, सुन्दर सुडौल ऊरु जंघाओं वाला था, नील वेष्टित केशर वाला था, उसकी दोनों भौंहें जुड़ी हुई थीं, चंचल और पूर्ण चन्द्र के सदृश मुख से समन्वित था। कपाट के तुल्य विशाल हृदय पर रोमावली से शोभित था शुभ्र मातंग की सूँड़ के समान पीन तथा विस्तृत बाहुओं से संयुक्त था, रक्त हाथ, लोचन, मुख पाद और करों से उपद्रव वाला था। उस पुरुष का मध्य भाग क्षीण अर्थात् कुश था, सुन्दर दन्तावली थी वह हाथी के सदृश कन्धरा से समन्वित था। विकसित कमल के दलों के समान उनके नेत्र थे तथा केशर घ्राण से तर्पण था, कम्बू के समान ग्रीवा से युक्त, मीन के केतु वाला प्राँश और मकर वाहन था। पाँच पुरुषों के आयुधों वाला, वेगयुक्त और पुष्पों के धनुष से विभूषित था। कटाक्षों के पात के द्वारा दोनों नेत्रों की भ्रमित करता हुआ परम कान्त था। सुगन्धित वायु के भ्रान्त और श्रृंगार रस से सेविक इस प्रकार के उस पुरुष को देखकर वे सब मानस पुत्र जिनमें दक्ष प्रजापति प्रमुख थे, विस्मय से आविष्ट मन वाले होते हुए अत्यधिक उत्सुकता को प्राप्त हुए थे और मन विकार को प्राप्त हो गया था।

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Hardbound

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Hindi

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Publishing Year

2015

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