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Description
कल्पवृक्ष की छाँव
दो शब्द
बाजार में जब आपको कुछ नया और उपयोगी दिखाई देता है, तो उसकी चर्चा आप अपने लोगों के बीच किए बिना नहीं रह पाते। इस पुस्तक की सामग्री का संकलन करते समय मेरे मन में यह चाह रही है कि जिस कल्पवृक्ष के नीचे मैं बैठकर अपने मनोरथों को पूरा कर पा रही हूं, उसकी छाया प्राप्त करने का सौभाग्य आप सबको भी मिले। आदि शकंकराचार्य ने सद्गुरु, सत्संग, ब्रह्मविचार और संतोष—इन चार को परम दुर्लभ माना है। आत्मानुभूति की यात्रा इन्हीं चार-चरणों में होती है।
मैंने महापुरुषों से सुना है कि सद्गुरु का सान्निध्य और दर्शनपूर्वक श्रवण जीवन में आध्यात्मिक प्रगति की रफ्तार बढ़ा देता है। लेकिन यदि किसी कारण यह सौभाग्य आपको प्राप्त नहीं हो रहा है, तो पठित द्वारा स्वयं को उच्चादर्शों के लिए आप प्रेरित तो कर ही सकते हैं, यह प्रेरणा सहज रूप से आपके द्वारा वह सब कुछ करवा लेगी, जिससे आपका कल्याण हो। परोक्ष ज्ञान का यही तो माहात्म्य है।
शास्त्र-ज्ञान ही तो साधना से संयुक्त होकर हृदय की गहराई में जाकर साधक के संपूर्ण व्यक्तित्व को बदलता है। जो परोक्ष ज्ञान को नकारते हुए आत्मनुभूति की बात करते हैं, बाह्य साधनाओं के बिना आंतरिक परिवर्तन का पक्ष लेते हैं और उसकी पुष्टि के लिए कुछ विशिष्ट महापुरुषों का उदाहरण देते हैं, वे भूल जाते हैं कि अपवादों से सिद्धांतों का निर्माण नहीं होता। वे इस सत्य को भी नकार देते हैं कि साधना-जन्म-जन्मांतरों की होती है।—जो सामने दिख रहा है, वह वैसा है नहीं। कबीर एवं रैदास सरीखे महापुरुषों ने अपने पूर्वजन्म में उस ज्ञान को प्राप्त कर लिया था जिसे हम-आप आज प्राप्त करना चाह रहे हैं। प्रकृति में विकास की एक सुनिश्चित प्रक्रिया होती है। यदि आप इसे स्वीकारते हैं, तो आध्यात्मिक विकास की सुव्यवस्था से आप कैसे नजर चुरा सकते हैं। वहां ‘बाईचांस’ कहकर नहीं बचा जा सकता। कार्य कारण का सिद्धांत वहां भी कार्य करता है।
परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर सद्गुरु देव आचार्य मंडलेश्वर श्री स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों में सिद्धांत के विश्लेषण के साथ ही गहरी व्यवहार कुशलता का भी पुट है। कथा ‘रामचरित मानस’ की हो या ‘श्रीमद्भागवत’ की—दोनों में ही जीवन में सफलता के सूत्र समाहित हैं। मेरी दृष्टि में सफलता का अर्थ है मुक्ति पथ को प्रशस्त करना। शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम को पुरुषार्थ कहा गया है। मनीषियों की दृष्टि में परम पुरुषार्थ मोक्ष है। इसका सीधा अर्थ है कि यदि धर्मादि पुरुषार्थ मुक्ति की ओर नहीं ले जा रहा हैं, तो वे निरर्थक हैं।
संत तुलसी दास का यह संदेश कुछ ऐसा ही संकेत देता है—
जिनके प्रिय न राम बैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।
यदि जीवन की सारी मर्यादाएं, सारे कर्तव्य, सारे रिश्ते-नाते तथा समस्त साधनाएं जीव को आत्मानुभूति के लक्ष्य की प्राप्ति कराती हैं, तो वे सार्थक हैं।
महाराजश्री के प्रवचनों में मुझे जो सूत्र रूप लगा, उसी को मैंने अपनी भाषा में देने का प्रयास किया है। कोशिश तो की है कि भाव के साथ ही महाराजश्री की शब्दावली के माध्यम से कुछ संजोया जा सके, यह जानते हुए भी कि महापुरुषों के भाव-शब्द दोनों की गहराई को पकड़ पाना आसान काम नहीं है, समान स्तर वाले के लिए ही ऐसा हो पाना संभव होता है। अपने प्रयास में मुझे कहां तक सफलता मिली है, यह तो विद्वान ही बता सकते हैं।
मुझे विश्वास है कि मेरे इस प्रयास की जिज्ञासु साधक अवश्य सराहना करेंगे। यदि उन्हें कहीं भी ऐसा कुछ लगता है, जो मुझे नहीं करना चाहिए था, तो इसकी जानकारी मुझे अवश्य दें ताकि मैं उसमें परिवर्तित और सुधार कर सकूं।
इस कार्य को मैं सद्गुरु देव की कृपा के बिना नहीं कर सकती थी। असल में उन्होंने मुझे निमित्त बनाकर ऐसा कुछ करने का सौभाग्य प्रदान किया है, जिससे गुरु सेवा हो सके, साथ ही आत्ममंथन का सुअवसर भी मिले। इस संकल्प को अपने पितृतुल्य श्री गंगा प्रसाद शर्मा जी से मुझे जो संबल मिला, उसके लिए मैं उनकी अत्यंत आभारी हूं। और अंत में—तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा !
– वीणा गोस्वामी
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2014 |
Pulisher |
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