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कंकाल
‘‘समग्र संसार अपनी स्थिति रखने के लिए चंचल है, रोटी का प्रश्न सबके सामने है, फिर भी मूर्ख हिन्दू अपनी पुरानी असभ्यताओं का प्रदर्शन कराकर पुण्य-संचय करना चाहते हैं।’’ ‘‘जब संसार की अन्य जातियाँ सार्वजनिक भ्रातृभाव और साम्यवाद को लेकर खड़ी हैं, तब आपके इन खिलौनों (मूर्तियों) से भला उनकी सन्तुष्टि होगी?’’ कहना न होगा कि क़रीब पचपन वर्ष पूर्व इस उपन्यास के पृष्ठों में अंकित प्रसाद जी के ये शब्द भारतीय समाज के सन्दर्भ में आज भी प्रासंगिक हैं।
संक्षेप में, उनका यह महत्त्वपूर्ण उपन्यास धर्म के नाम पर होनेवाले शोषण और स्त्रियों के प्रति अमानवीय व्यवहार को गहन संवेदनशीलता से उद्घाटित करता है, धर्म-संस्थाओं, अन्धविश्वासों, कपटाचरण और भेदभाव के विरुद्ध कितने ही तीखे प्रश्न उठाता है या कहें कि भारतीय समाज की सड़ाँध पर पड़ी राख को खुरचता है और कुछ इस कौशल से कि हमारा हृदय लोकमंगल की भावना से भर उठता है—एक ऐसी आध्यात्मिकता से जो हमें वास्तविक अर्थों में रूढ़िमुक्त करती है और युगीन सच्चाइयाँ हमारे भीतर आन्तरिक वास्तव सहित उतरती चली जाती हैं।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2015 |
Pulisher |
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