Kariye Chima
Kariye Chima
₹125.00 ₹105.00
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Author: Shivani
Pages: 120
Year: 2017
Binding: Paperback
ISBN: 9788183611152
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan
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Description
करिए छिमा
अनुक्रम
- स्वप्न और सत्य
- चार दिन की
- कालू
- माई
- करिए छिमा
- जिलाधीश
- दो बहनें
- मसीहा
- मेरा बेटा
स्वप्न और सत्य
बहुत पहले, एक पुस्तक पढ़ी थी, ‘द प्राफ़ेटिक ड्रीम’। उसे पढ़कर, तब अविश्वास हुआ था। कहीं ऐसा भी सम्भव है कि नींद में देखी गई घटना, जीवन की वास्तविकता बनकर घट जाए ? किन्तु फिर एक दिन स्वयं ही ऐसा स्वप्न देख लिया, जो मेरे जीवन में अविस्मरणीय बन गया।
मैं तब बेंगलूर में थी। एक रात, आँख लगते ही मैंने वह विचित्र स्वप्न देखा था। मैं कहीं तेजी से जा रही हूँ-चारों ओर रेल की पटरियाँ ही पटरियाँ बिछी हुई हैं। उन्हें लाँघती हुई मैं एक जंगल में पहुँचती ही हूँ कि गरज-गरज के साथ वृष्टि आरम्भ हो जाती है। अचानक एक कृशकाया लम्बी-सी साँवली युवती मेरा मार्ग अवरुद्ध कर खड़ी हो जाती है। वह मुँह से कुछ नहीं कहती, किन्तु गोद में नवजात शिशु को लेकर मेरी और अग्रसर होती है। आश्चर्य से मैं नीली बेंगलूरी साड़ी में लिपटे उस गौरवपूर्ण शिशु को देखती रहती हूँ। चमकती बिजली में मुझे उस युवती का चेहरा एकदम स्पष्ट दिखने लगता है। उसका घोर कृष्णवर्ण, रात्रि के गहन अन्धकार में घुल-मिल गया है। दोनों ओर छिदी नाक में तीन-तीन नगों की हीरे की दो लौंगें झलझला रही हैं।
लाँग-लगी दक्षिणी रेशमी साड़ी की चौड़ी ज़री, कमर पर कसी सोने की भारी करधनी और स्वयं उसके व्यक्तित्व की गरिमा उसके सम्भ्रान्त कुल का परिचय दे रही है। उसके दोनों होंठ काँप उठते हैं, किन्तु सहसा वाणी की विवशता, उसके काले कपोलों पर अश्रुधारा बनकर बिखर जाती है। फिर बिना कुछ कहे, वह रोते शिशु को मेरे पैरों के पास रखकर, तेजी से उसी अरण्य में विलीन हो जाती है।
मैं चौंककर जगी ही नहीं, स्वप्न की सम्भावना में ही पायताने पड़े उस शिशु को भी टटोलने लगी थी। और फिर, ठीक एक महीने बाद, वही स्वप्न मेरी आँखों पर उतर आया। किन्तु इस बार मेरी पलकें बन्द नहीं थीं, न मुझमें इतना साहस ही था कि पैरों के पास पड़े उस परित्यक्त शिशु को फिर टटोल लूँ…।
जीवन के कितने वसन्त आए और चले गए, किन्तु उस वसन्त को मैं आज तक न भूल पाई हूँ, और शायद कभी भूल भी नहीं पाऊँगी। प्रौढ़ मेघाच्छन्न आकाश को देखकर भी मैं घर से निकल पड़ी थी। नित्य की संगिनी, चचेरी बहन मुन्ना को भी उस दिन साथ में नहीं लिया। एक तो उस भुवनमोहिनी को साथ लेकर चलने में बीसियों बन्दिशों का अंकुश सहना पड़ता था।
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2017 |
Pulisher |
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