Kuch Pal Sath Raho
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Description
कुछ पल साथ रहो
प्रेम, मृत्यु, कलकत्ता, निःसंगता-मेरे प्रिय विषय इस संग्रह में शामिल हैं। सब कुछ की तरह, अब प्रेम भी कहीं और ज्यादा घरेलू हो गया है। ये कविताएँ मैंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पूरे साल भर रहने के दौरान, केम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स में बैठकर लिखी हैं। कविता लिखने में, मैंने साल भर नहीं लगाया, जाड़े का मौसम ही काफी था। इन्हें कविता भी कैसे कहूँ इनमें ढेर सारे तो सिर्फ खत हैं। सुदूर किसी को लिखे गये, रोज-रोज सीधे सरल खत ! चार्ल्स नदी के पार, केम्ब्रिज के चारों तरफ जब बर्फ ही बर्फ बिछी होती है और मेरी शीतार्तदेह जमकर, लगभग पथराई होती है, मैं आधे सच और आधे सपने से, कोई प्रेमी निकाल लेती हूँ अपने को प्यार की तपिश देती हूँ, अपने को जिन्दा रखती हूँ।
इस तरह समूचे मौसम की निःसंगता में, मैं अपने को फिर जिन्दा कर लेती हूँ। और रही मृत्यु ! और है कलकत्ता ! निःसंगता ! मृत्यु तो खैर, मेरे साथ चलती ही रहती है, अपने किसी बेहद अपने का ‘न-होना’ भी साथ-साथ चलता रहता है ! हर पल साथ होता है ! उसके लिए शीत, ग्रीष्म की जरूरत नहीं होती। ये सब क्या मुझे छोड़कर जाना चाहते हैं ? वैसे मैं भी कहाँ चाहती हूँ कि ये सब मुझसे दूर हो जाएँ। कौन कहता है कि निःसंगता हमेशा तकलीफ ही देती है, सुख भी तो देती है।
उन दिनों माँ कितनी तकलीफ पाती थी ! कितना-कितना रोती थी माँ ! वह मुझसे कहती थी कि मेरे वापस लौटते ही, उसके सारे दु:ख दूर हो जाएँगे। मैं अब किसी दिन भी वापस नहीं लौटूँगी, माँ क्या जानती थी ? मन ही मन सही, तुझे भी क्या यह पता था ?
तुझे मुझको बताना चाहिए था ! सब कुछ ! जैसे माँ को छू-छूकर, तू उन्हें तसल्ली देती थी- किसी दिन मैं ज़रूर लौट आऊँगी। जैसे तू माँ के आँसू पोंछ देती थी, उनकी तरफ हाथ बढ़ा देती थी ! तुझे सब बताना चाहिए था न ! मुझे भी छू लेना था, तुम्हारे हाथ, जिसे थामकर मुझे लगता- मैं माँ को छू रही हूँ ! जिन हाथों की खुशबू में मिलेगी मुझे माँ की खुशबू ! तेरे वे हाथ, अब कहाँ हैं, शेफाली !
मुझे माँ को पाने दे !
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2021 |
Pulisher |
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