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Description
कुरुक्षेत्र
युद्ध की समस्या मनुष्य की सारी समस्याओं की जड़ है। युद्ध निन्दित और क्रूर कर्म है; किन्तु उसका दायित्व किस पर होना चाहिए ? उस पर, जो अनीतियों का जाल बिछाकर प्रतिकार को आमंत्रण देता है ? या उस पर, जो जाल को छिन्न-भिन्न कर देने के लिए आतुर रहता है ?… ये ही कुछ मोटी बातें हैं जिन पर सोचते-सोचते यह काव्य पूरा हो गया।
दिनकर
प्रथम सर्ग
वह कौन रोता है वहाँ–
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढ़े, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ?
और तब सम्मान से जाते गिने
नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढ़ा जिनने दिये निज लाल हैं।
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही–
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का, गरलमय द्रोह का।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2023 |
Pulisher |
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