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आशीर्वचन
आनन्द वन श्री क्षेत्र काशी समस्त वेदों, शास्त्रों एवं पुराणों की विशिष्ट ज्ञानस्थली है। अनादिकाल से यहाँ वैदिक मंत्रों, श्लोकों और ऋचाओं का अध्ययन, मनन चिंतन मंथन और उनका प्रशिक्षण काशी की प्रधानता है। विशिष्ट पंथों के धर्माचार्यों द्वारा धार्मिक ज्ञान चर्चायें काशी की सांस्कृतिक परम्परा है। विद्वत्ता पर प्रामाणिकता की मान्यता देने का श्रेय काशी को ही प्राप्त है।
तात्पर्य यह कि काशी ज्ञानियों, विद्वतजनों महापुरुषो का ज्ञानपुंज स्तम्भ रही है। सनातन धर्म तथा अन्य सभी धर्मावलम्बी धर्माचार्यों ने मुक्तकंठ से काशी को सर्वोत्कृष्ट महापुण्यधाम के रूप में स्वीकार किया है। उदाहरणस्वरूप बौद्ध धर्म, जैन धर्म, हिन्दू धर्मावलम्बियों ने काशी को अपने प्रमुख धार्मिक केन्द्रों का प्रधान स्थल माना है।
ज्ञान पिपासुओं ने काशी आकर ही अपने को धन्य माना है। आदिगुरू गुरू शंकराचार्य, भगवान गौतम बुद्ध, जैन मतावलम्बी महावीर स्वामी, तैलंग स्वामी, संत ज्ञानेश्वर, श्री एकनाथ महाराज, संत तुलसी आदि काशी आकर तृप्त हुए । इस प्रकार महान् महापुरुषों की प्रेरणास्रोत काशी ही रही है। आचार्य प्रभु वल्लभाचार्य, श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु महात्मा गाँधी, आचार्य भावे आदि ने काशी को सांस्कृतिक ज्ञान गरिमा की सर्वोत्कृष्ट और पुण्य पौराणिक ज्ञानस्थली स्वीकार किया है। यहाँ पधारकर विद्वानों ने आत्मचिंतन, साधना शास्त्रार्थ कर अपने को गरिमा मंडित व धन्य माना है। ज्ञान गंगा सदा प्रवाहित रही है। पं० मदनमोहन मालवीय ने यहाँ पर सुप्रसिद्ध सर्वश्रेष्ठ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की जो अन्तर्राष्ट्रीय विद्याध्ययन का प्रमुख केन्द्र है।
इस सन्दर्भ में मेरे पूज्य पिता संत तनपुरे बाबा ने यद्यपि सम्पूर्ण भारत की धार्मिक पदयात्रा की परन्तु उन्हें भी महाराष्ट्र से आकर भगवान भोलेश्वर की पावनतम काशी में ही आत्मतृप्ति हुई, उनका समस्त काशीवासियों से और काशी से तादात्मय स्थापित हो गया।
उन्होंने काशी को श्रेष्ठतम ज्ञान की नगरी की संज्ञा दी। सन् १९८५, २६ नवम्बर को वैकुंठ चतुर्दशी के दिन अपने महाप्रयाण दिवस के एक दिन पूर्व समारोह में अपने हृदय के उद्गार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि गत् पंडितों (ज्ञानियों) का ज्ञान गंगा केन्द्र है और महाराष्ट्र का श्रीक्षेत्र पंढरपुर (दक्षिण काशी) महान संतों का पावन धाम है जहाँ भक्ति गंगा प्रवाहित होती रही है।
ज्ञान गंगा का उद्गम स्थान संत हृदय होता है। कहा भी है कि –
संत तेथे विवेका असणेच की ।
ते ज्ञाना चे चालते बिंब
त्याचे अवयव सुखाचे कोंभ ।।
संत के हृदय से जो अत्यन्त मधुर, सरल, सुबोध वाणी मुखरित होती है उसमें जीवन के मूलभूत तत्व ज्ञान एवं आचरण की पावनता की सुगन्ध होती है। उनकी वाणी, ज्ञानियों, अज्ञानियों, निरक्षर तथा विषय विकारों से संतप्त पीड़ित जनों के आहत मन व हृदय तक के जख्मों पर मरहम की भांति सुख, शान्ति एवं आनन्द की अनुभूति कराने वाली होती है।
समय के बदलते प्रवाह तथा कलि के प्रभावों से आज मनुष्य और समाज के विचार विकारयुक्त हो गये हैं। समाज का सम्पूर्ण जीवन भ्रमित और आक्रान्त है। अनाचार, दुराचार, मिथ्याचार, भ्रष्टाचार, हिंसा भाव प्रभावी हो गया है। इस अज्ञानांधकार में भटके नर नारियों के हृदयों में अपने अभीष्ट मार्ग की सुधि पुनरुज्जीवित करने के लिये आज संत चरित्रों, अनुभवों के अवलोकन और उन्हें मार्गदर्शन देने की आवश्यकता है। संतवाणी समाज के प्रति अर्पित करना यही समय की माँग है। इस ज्ञानार्जन और आचरण के बिना समाज सुखी नहीं होगा। इस दिशा में ज्ञान मंडित एवं भक्त हृदय रचनाकार श्री सप्रेजी द्वारा महाराष्ट्र के संत चरित्रों का हिन्दी भाषा में कालक्रम के आधार पर महाराष्ट्र के पन्द्रह महान संत की रचना कर हिन्दी भाषा भाषी विशाल आस्तिक समाज को भी भक्ति धारा संजीवनी का पान करने का सुअवसर प्रदान किया गया है। अवलोकन करने पर इसमें भक्त पुंडलिक से लेकर संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत गोरोबा, संत जनाबाई, संत कान्होपात्रा, संत श्री सेना महाराज, संत चोखामेला, संत भानुदास, संत एकनाथ, संत तुकाराम, संत बहिणाबाई, संत रामदास, संत गजानन महाराज, शिरडी के साईंबाबा के प्रेरक चरित्र अंशों का विवेचन किया गया है। इसके प्रति मैं श्री सप्रेजी को भगवान पंढरीनाथ एवं भोले भंडारी से कामना करता हूँ कि उन्हें भविष्य में इसी प्रकार अनवरत् संत साहित्य चरित्र लिखने की प्रेरणा मिलती रहे। मैं आशीर्वचन के रूप में चाहता हूँ कि उन्हें ईश्वर मनसा, वाचा, कर्मणा आरोग्यता की शक्ति प्रदान करता रहे और आस्तिक पाठकगण निरन्तर सुख शान्ति और आनन्द प्राप्त कर धन्य होते रहें।
मैं अपने को कृतार्थ मानता हूँ कि परमादरणीय लेखक श्री सप्रेजी ने अपनी प्रस्तुत बहुमूल्य रचना मेरे बैकुंठवासी पिता संत कुशाबा तनपुरे महाराज को समर्पित की है और पुत्र के नाते मुझे सौंपकर सचमुच आपने महाराष्ट्र संत परम्परा के प्रति अपनी सहज आस्था अभिव्यक्त की है। यह भगवान पंढरीनाथ की इच्छा मानते हुए शिरोधार्य है।
भूमिका
क्रांति का जन्म शांति के गर्भ में नहीं होता । सामाजिक एवं राजनीतिक अशांति ही उसके जन्म का मूल कारण होती है। महाराष्ट्र में संतों के प्रादुर्भाव का प्रमुख कारण वहाँ की राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थिति है। मुस्लिम शासन के पूर्व वहाँ यादववंशीय राजाओं का शासन था। महाराष्ट्र की जनता के लिए वह सुख एवं समृद्धि का काल था। इस काल में महाराष्ट्र में साहित्य, संगीत, कला तथा धर्मशास्त्र आदि विद्याओं की पर्याप्त उन्नति हुई। उन दिनों सारी विद्याएँ संस्कृत साहित्य में ही उपलब्ध थीं तथा जनसामान्य की पहुँच से बाहर थीं।
उन दिनों महाराष्ट्र में नाथ संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय, वारकरी संप्रदाय एवं समर्थ संप्रदाय का बोलबाला था। संत ज्ञानेश्वर पहले नाथ संप्रदाय में दीक्षित थे किन्तु व्यापक एवं मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण उन्होंने वारकरी संप्रदाय की नींव डाली। संत एकनाथ भी पहले दत्त संप्रदाय में दीक्षित थे किन्तु बाद में वारकरी संप्रदाय के आधारस्तम्भ बने। महाराष्ट्र में पाँच संप्रदाय मुख्य रूप से थे किन्तु उनमें कभी भी परस्पर टकराव की स्थिति नहीं आती थी।
सन् १४९० से १५२६ ई० के बीच बहमनी राज्य पाँच खण्डों में विभाजित हुआ जिनमें से अधिकांश का संबंध महाराष्ट्र से था।
सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में दूरदर्शी शाहजी के महत्वाकांक्षी पुत्र शिवाजी ने मराठा राज्य की स्थापना कर उसका विस्तार किया जिसमें परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से एकनाथ, तुकाराम तथा रामदास आदि संतों का योगदान रहा। उन्होंने अपनी वाणी से जनता की अस्मिता को जगाया।
तेरहवीं शताब्दी के अंत में, पहले मुगलों के आक्रमण, फिर कुछ काल तक चन्नन वाला उनका शासन तथा बाद में आया बहमनी शासन महाराष्ट्र के जीवन के लिए किसी दैवी आपदा से कम नहीं था। उन्होंने मराठों की सत्ता के साथ साथ मराठों का हिन्दू धर्म, उनकी प्राचीन परंपराएँ तथा उसकी अस्मिता को ध्वस्त करने का मानों बीड़ा उठा लिया था। मराठा सरदार तथा विद्वान शास्त्री पंडित भी क्य गो बचा पाये। डॉ०पु०ग० सहस्त्रबुद्धे लिखते हैं, ऐसी स्थिति में यदि ज्ञानेश्वर नामदेव, एकनाथ, तुकाराम एवं रामदास जैसे संतों का इस भूमि पर ध्यदे: न हुआ होता तो महाराष्ट्र का सर्वनाश अटल था। उन्होंने अपनी वाणी लेखनी से तथा कर्त्तव्य से भारत के प्राचीन वैदिक धर्म का, गीता धर्म का पुनरुद्धार किया और उस प्रलयात्पत्ति से समाज की रक्षा की। महाराष्ट्र में वारकरी पंथ की स्थापना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम था।
अनुक्रमणिका | ||||||||
1 | भक्त पुंडलिक | 1 | ||||||
2 | संत ज्ञानेश्वर | 8 | ||||||
3 | संत नामदेव | 20 | ||||||
4 | संत गोरोबा | 32 | ||||||
5 | संत जनाबाई | 45 | ||||||
6 | संत कान्होपात्रा | 50 | ||||||
7 | संत श्री सेनामहाराज | 64 | ||||||
8 | संत चोखामेळा | 78 | ||||||
9 | संत भानुदास | 92 | ||||||
10 | संत एकनाथ | 108 | ||||||
11 | संत तुकाराम | 121 | ||||||
12 | संत बहिणाबाई | 135 | ||||||
13 | संत रामदास | 149 | ||||||
14 | संत गजानन महाराज | 161 | ||||||
15 | शिर्डी के साईंबाबा | 174 |
Additional information
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Authors | |
---|---|
Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2017 |
Pulisher |
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