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मत्स्यगन्धा
सत्यवती के मुँह से जैसे अनायास ही निकल गया, ”मैं निषाद-कन्या ही हूँ तपस्वी ! मत्स्यगन्धा हूँ मैं। मेरे शरीर से मत्स्य की गन्ध आती है।” तपस्वी खुल कर हँस पड़ा और उसने जैसे स्वतःचालित ढंग से सत्यवती की बाँह पकड़ कर उसे उठाया, “मछलियों के बीच रह कर, मत्स्यगन्धा हो गई हो पर हो तुम काम-ध्वज की मीन ! मेरे साथ आओ। इस कमल-वन में विहार करो और तुम पद्म-गन्धा हो जाओगी।” दोनों द्वीप पर आये और बिना किसी योजना के अनायास ही एक-दूसरे की इच्छाओं को समझते चले गये/ तपस्वी इस समय तनिक भी आत्मलीन नहीं था। उसका रोम-रोम सत्यवती की ओर उन्मुख ही नहीं था, लोलुप याचक के समान एकाग्र हुआ उसकी ओर निहार रहा था।
सत्यवती को लग रहा था, जैसे वह मत्स्यगन्धा नहीं, मत्स्य-कन्या है। यह सरोवर ही उसका आवास है। चारों ओर खिले कमल उसके सहचर हैं। पृष्ठ संख्या 21 से “सत्यवती को विश्वास नहीं हुआ था। पिता के दूसरे विवाह से देवव्रत को ऐसा कौन-सा लाभ होने जा रहा था, जिसके लिए देवव्रत ने आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा कर ली थी ? यह प्रतिज्ञा पिता को प्रसन्न करने के लिए ही तो की थी न। पर, पिता को प्रसन्न करके क्या मिलेगा देवव्रत को – राज्य ही तो ? पर वही राज्य त्यागने की प्रतिज्ञा का ली है उन्होंने। केवल राज्य ही नहीं – स्त्री-सुख भी। क्यों की यह प्रतिज्ञा ? इससे देवव्रत को कौन-सा सुख मिलेगा ?”
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2023 |
Pulisher |
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