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Description
मायापुरी
लखनऊ की मायापुरी और उसमें पालतू बिल्ली-सी घुरघुराती नरमायी लिए प्रतिवेशी प्रवासी परिवार में पहाड़ के सुदूर ग्रामीण अंचल से आई शर्मीली सुन्दरी शोभा का आना बड़े उत्साह का कारण बना, विशेषकर घर की बेटी मंजरी के लिए। पर पिता के बाल्यकालीन मित्र के उस परिवार में घर के बेटे सतीश के विदेश से लौटने पर लहरें उठने लगीं। शोभा और सतीश, अविनाश और मंजरी, युवा जोड़ों के बीच आकर्षण-विकर्षण की रोचक घुमेरियों से भरी मायापुरी की कहानी में नकचढ़ी मंत्री दुहिता एक झंझा की तरह प्रवेश करती है, और देखते-देखते सतीश उसकी दुनिया का भाग बनने लगता है। पर क्या नेह-छोह के बन्धन सहज टूटते हैं नैनीताल वापस लौटी शोभा के जीवन को रुक्की, रामी, रानी साहिबा और उनके रहस्यमय जीवन की परछाइयाँ कैसे घेरने लगती हैं।
स्त्री-पुरुष के चिरन्तन आकर्षण की मरीचिकामय मायापुरी तथा जीवन की कठोर वास्तविकता के टकराव से भरा यह उपन्यास आज भी अपनी अलग पहचान रखता है।
मायापुरी
श्रावण की वर्षा से पहाड़ के मकानों की छतें धुलकर चमक रही थीं। पेड़ों के बीच से झाँकती गोल-गोलाकार सर्पिणी-सी पगडंडियाँ लोगों के चलने से मुखर हो उठीं। ग्राम के बालक हाथ में लकड़ी की पाटियाँ और दावात में सफेद घोली खड़िया लेकर स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे। देवीदत्त का प्रांगण भी बाल-कल-कंठ से मुखरित हो उठा : ‘दीदी, मेरी चोटी बाँध दो’, ‘दीदी, बासी रोटियों का कटोरदान निकालो न जल्दी से’, ‘मेरी टोपी कहाँ है ?-हाय, अब मैं नंगे सिर स्कूल कैसे जाऊँगा ?’ पहाड के स्कूल में नंगे सिर जाने का अर्थ हो होता अध्यापक द्वारा कठोर चपेटघात और कर्णमर्दन।
तीनों भाइयों से अकेली निकटती शान्त शोभा भी धैर्य खो बैठती : ‘मर क्यों नहीं जाते तीनों छोकरे, देखते नहीं हो चाय बना रही हूँ !’ वह झुँझलाकर कहती। दीदी की एक डाट से तीनों थोड़ी देर के लिए सहमकर चुप हो जाते और अपने हिस्से की चाय कलई के गिलास में घुटकने लगते। शोभा ने कटोरदान से रोटियाँ निकाल गुड़ की डली रख भाइयों को दे दी; फिर कपड़ों की गठरी लेकर आँगन में धोने चली गई। तीनों भाई कोट की बाँहों से मुँह पोंछते हुए स्कूल को चले गए और क्षण-भर पहले का कोलाहल एकाएक शान्त हो गया।
शोभा ने माँ की मोटी धोती धोकर धूप में डाल दी। आज माँ खेत से देर में आएगी और फिर तभी उसे स्मरण हो आया, आज माँ का एकादशी का व्रत भी तो है। तीन-चार दाने आलू के उसने छिपी आग में भूँजने को डाल दिए और उधड़े ऊन का मोजा बुनने बैठ गई।
शोभा के पिता की मृत्यु को डेढ़ वर्ष बीत चुका था। वे लखनऊ सेक्रेटेरियट में क्लर्क थे और वर्षों से वहीं एक किराए के छोटे-से मकान में परिवार सहित रहते थे। कई वर्षों के प्रवास से बच्चे अपनी भाषा प्राय: भूल चुके थे। शोभा बी.ए. कर चुकी थी, दो पुत्र स्कूल जाते थे। गृहस्थी की गाड़ी मन्द-मंथर गति से चल रही थी। एक दिन जब लखनऊ आग उगल रहा था, ऑफिस से साइकिल पर घर लौटते क्षीणकाय देवीदत्त लू की लपेट में आ गए और कुछ ही क्षणों में विधवा पत्नी और चार बच्चों को बिलखता छोड़कर चल बसे। बार-बार विलाप करती, पिता के मृत शरीर पर पछाड़े खाती माता को और तीन बिलबिलाते अबोध भाइयों को देखकर शोभा की आँखों के आँसू आँखों में ही सूख गए। पास-पड़ोस के पर्वतीय समाज ने किसी तरह चन्दा करके संतप्त परिवार को पहाड़ भेज दिया। विधवा का कोई अवलम्ब न होने पर भी गाँव में अपनी जमीन थी, बाप-दादों का बनाया छोटा-सा एक घर भी था। पहाड़ी गाँव के लोगों ने बड़े प्रेम से प्रवासी परिवार को अपना लिया।
शोभी की माँ अत्यन्त निरीह स्वभाव की थी। धीरे-धीरे उसने गहने बेचकर एक जोड़ी बैल खरीद लिए और वर्षों से बंजर जमीन को जोतकर ठीक बना लिया। तीनों लड़के स्कूल जाने लगे किन्तु विवाह योग्य शोभा उसके हृदय में शूल समान पीड़ा देती, उसके कोमल कुम्हलाए मुख को देखकर उसे बड़ा दुख होता। एकमात्र कन्या को देवीदत्त ने सर्वदा अच्छी संस्थाओं में पढ़ाया था। कुशाग्र बुद्धि की शोभा ने जब अठारह वर्ष में ही बी.ए. कर लिया तो वे बोले, ‘‘देखना दुर्गा, किसी दिन यह मेरा ही नहीं, पूरे कुल का नाम रौशन करेगी।’’ दुर्गा ने कई बार कहा कि अब तो आप उसके लिए कोई लड़का देखिए पर वे कहते, ‘‘शोभा एम.ए. करेगी, अभी क्या शादी, अभी तो बच्ची है।’’ इसी तरह विवाह योग्य बच्ची को स्वयंवरा रूप में ही विधवा पत्नी पर छोड़े वे जब चल बसे तो दुर्गा पागल-सी हो गई। वह जानती थी कि एम.ए. न करने से पुत्री के हृदय में मन ही मन एक संघर्ष चल रहा है। वह दिन-रात खेत के काम में जुटी रहती, ग्राम की बड़ी-बूढ़ियाँ तक कभी-कभी कहतीं, ‘‘दुलहिन, अब इसके हाथ पीले कर दो, इतना पढ़ा-लिखाकर क्या लड़की से हल भी जुतवाओगी ?’’
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Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2009 |
Pulisher |
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