Media Hu Mai

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Media Hu Mai

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550.00 475.00

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550.00 475.00

Author: Jai Prakash Tripathi

Availability: 5 in stock

Pages: 608

Year: 2014

Binding: Hardbound

ISBN: 9789383682348

Language: Hindi

Publisher: Aman Prakashan

Description

मीडिया हूँ मैं

इन दिनों, जब मीडिया इंडस्ट्री को सबसे तेज भागती और नित नया रूप बदलती इंडस्ट्री का तमगा दिया जा रहा है, तब यह जरूरी हो जाता है कि इस मिशन की न केवल गंभीर पड़ताल की जाए, बल्कि उसके उन तत्वों को खंगाला जाए, जिन्होंने इसे रचने और मांजने में योगदान दिया है। जाहिर है कि अगर मीडिया के भीतर से इसकी शुरुआत हो तो सही मायनों में हम मीडिया के बदलावों, उसमें पनपती नए जमाने की फितरतों और पूंजी और मुनाफे की मुठभेड़ में कहीं खोती जा रही असल खबरों की जरूरतों के साथ-साथ पत्रकारों के लिए तैयार हो रही पगडंडियों पर बेहतर बात कर पाएंगे।

वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक ‘मीडिया हूं मैं’ इसी तरह की पड़ताल की कमी को पूरा करती है। नया होता मीडिया अपने नए-नए उपक्रमों के सहारे तेजी से विस्तार ले रहा है। इंटरनेट ने मीडिया के कई खांचों को पूरी तरह बदल दिया है। संपादक नाम की संस्था अब असंपादित टिप्पणियों वाले आभासी साम्राज्य के आगे बेबस-सी है। सोशल मीडिया के नाम से अगर लोगों को वैकल्पिक माध्यम मिला है तो मोबाइल जैसे टूल ने नागरिक पत्रकारों और नागरिक पत्रकारिता जैसे नए आयाम हमारे सामने प्रस्तुत कर दिए हैं। फेसबुक और ट्विटर ने मीडिया के मायनों को फिर से परिभाषित करने पर मजबूर किया है। जाहिर है कि समय बदला है और जरूरतें भी। ऐसे में ‘मीडिया हूं मैं’ पुस्तक मीडिया की कहानी को मीडिया की ही जुबानी सुनाने का प्रयास करती है। छह सौ से अधिक पृष्ठों वाली इस पुस्तक में जयप्रकाश त्रिपाठी ने पत्रकारिता में 32 वर्षों के अपने अनुभवों के साथ साथ कई अन्य नामचीन पत्रकारों के विचारों को भी संकलित-प्रस्तुत किया है। मीडिया में अपना भविष्य खोज रहे युवाओं के लिए भी ढेर सारी ऐसी जरूरी जानकारियां इस पुस्तक में हैं, जो एक साथ किसी एक किताब में आज तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं। मीडिया के बनने और फिर नए रास्तों पर चलकर नई-नई मंजिलें पाने तक की रोचक यात्रा की झलकियां तथ्यतः इस पुस्तक में पढ़ने को मिलती हैं।

पत्रकारिता का श्वेतपत्र, मीडिया का इतिहास, मीडिया और न्यू मीडिया, मीडिया और अर्थशास्त्र, मीडिया और राज्य, मीडिया और समाज, मीडिया और कानून, मीडिया और गांव, मीडिया और स्त्री, मीडिया और साहित्य जैसे दसाधिक अध्यायों से गुजरते हुए लेखक के अनुभवों के सहारे इस पुस्तक में बहुत-कुछ जानने को मिलता है। इन अध्यायों में जिस तरह समय के अनुरूप ऐतिहासिक और आधुनिक मीडिया जगत को विश्लेषित किया गया है, वह अंतरविषयक जरूरतों को तो पूरा करता ही है, मीडिया के साथ विषय-वैविध्यपूर्ण रिश्तों की आवश्यक पड़ताल भी करता है। लेखक ने अपनी बात को स्थापित करने के लिए जिस तरह अन्य पत्रकारों के उद्धरणों का सहारा लिया है, वह भी सराहनीय है। पहले-पहल तो पुस्तक किसी लिक्खाड़ की आत्मकथा-सी लगती है, लेकिन धीरे-धीरे पृष्ठ-दर-पृष्ठ यह एक ऐसे दस्तावेज की तरह खुलने लगती है, जिसमें विरासत की पड़ताल के साथ-साथ अपने समय और मिशन के साथ चलने की जिद की गूंज सुनाई देने लगती है।

लेखक की पंक्तियों पर गौर करें तो वे मीडिया की बदलती तस्वीर से उसी तरह परेशान लगते हैं, जिस तरह समाज की विद्रूपता से हम सब। मीडिया को लेकर लेखक की गंभीरता इन शब्दों में साफ झलकती है – ‘मैं सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं, लड़ने के लिए भी। मनुष्यता जिसका पक्ष है, उसके लिए। जो हाशिये पर हैं, उनका पक्ष हूं मैं। उजले दांत की हंसी नहीं, मीडिया हूं मैं। सूचनाओं की तिजारत और जन के सपनों की लूट के विरुद्ध। जन के मन में जिंदा रहने के लिए पढ़ना मुझे बार-बार। मेरे साथ आते हुए अपनी कलम, अपने सपनों के साथ। अपने समय से जिरह करती बात बोलेगी। भेद खोलेगी बात ही।…’ तय है कि यह पुस्तक नये पत्रकारों और पत्रकारिता के प्रशिक्षुओं के साथ-साथ मीडिया को समझने की ललक रखने वालों से बेहतर संवाद करने और उन्हें कुछ नया बताने-सिखाने में सफल होती है।

प्रसिद्ध कथाकार ममता कालिया के शब्दों में ‘मीडिया हूं मैं’ में लेखक ने अपने पत्रकारीय जीवन से जुड़े दशकों के अनुभव को सहेजने की कोशिश की है। प्रसिद्ध साहित्यकार रवींद्र कालिया कहते हैं – ‘मीडिया हूं मैं’ पुस्तक में कई ऐसी जानकारियां हैं, जिनसे तो मैं भी पहली बार परिचित हो सका।’ माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय (नोएडा) के निदेशक प्रो.जगदीश उपासने का कहना है कि ‘पत्रकारिता में अपना भविष्य देख रहे छात्रों एवं युवाओं के लिए ‘मीडिया हूं मैं’ एक संग्रहणीय एवं अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक है।’ प्रसिद्ध हिंदी कथाकार संजीव कहते हैं – ‘मीडिया हूं मैं’ पुस्तक में सच्चाइयों पर दुस्साहसिक तरीके से कलम चलाने का जोखिम उठाया गया है।

अनुक्रम

  • पूर्वारंभ : पत्रकारिता का श्वेतपत्र
  • मीडिया और इतिहास
  • मीडिया और न्यू मीडिया
  • मीडिया और अर्थशास्त्र
  • मीडिया और राज्य
  • मीडिया और समाज
  • मीडिया और कानून
  • मीडिया और गांव
  • मीडिया और स्त्री
  • मीडिया भाषा-साहित्य, मनोरंजन
  • मीडिया, बुक, वेब और अता-पता
  • मीडिया चिंतक
  • कतरन : मेरे होने का हलफनामा

पूर्वारंभ : पत्रकारिता का श्वेतपत्र

चौथा स्तंभ। मीडिया हूं मैं। सदियों के आर-पार। संजय ने देखी थी महाभारत। सुना था धृतराष्ट्र ने। सुनना होगा उन्हें भी, जो कौरव हैं मेरे समय के। पांडु मेरा पक्ष है। प्रत्यक्षदर्शी हूं मैं सूचना-समग्र का। संजय का ‘महाभारत लाइव’ था जैसे। अश्वत्थामा हाथी नहीं था। अरुण कमल के शब्दों से गुजरते हुए जैसेकि हमारे समय पर धृतराष्ट्र से कह रहा हो संजय- ‘किस बात पर हंसूं, किस बात पर रोऊं, किस बात पर समर्थन, किस बात पर विरोध जताऊं, हे राजन! कि बच जाऊं।’ मैं पराजित नहीं हुआ था स्वतंत्रता संग्राम में। ‘चौथा खंभा’ कहा जाता है मुझे आज। ‘चौथा धंधा’ हो गया हूं मैं। वह संजय था, उस महाभारत का। मीडिया हूं मैं इस महाभारत का। निर्वासित कर दिया है मुझे ‘पेजथ्री’ के लिए। लाक्षागृह सुलगने के ठहाके आ रहे हैं मेरे भी कानों तक। फिर भी किंचित विचलित नहीं। स्वयं से पूरी तरह आश्वस्त अपने स्वातंत्र्ययुद्ध की उन अंतिम प्रतीति और सुखद परिणतियों से। मेरी प्राणवायु में है ‘एक्टा डिउना’ के जन्म से ‘पैगामे हिन्द’, ‘बंगाल गजट’, ‘उदंत मार्तंड’, सोशल मीडिया तक का आद्योपांत यात्रा-वृत्तांत। अंतहीन-सा। चलता चला आ रहा हूं मैं। आज भी मुझमें गूंज रहा वंचित-स्वर। काले कारपोरेट से वंचित। आक्रमण किया था कौरवों ने। तो पांडवों ने भी। मेरे समय के कौरव। पेड न्यूज के पतित। विस्मृत नहीं, सन सत्तावन से पहले और बाद की महाभारत! ‘यदा-यदा ही धर्मस्य….. न दैन्यं, न पलायनम’ से मंत्रविद्ध मैं अनायास-सा महाभारत या कि स्वतंत्रता संग्राम की सहमतियों में वर्तमान मीडिया साम्राज्य के विरुद्ध स्वयं को मुखर कर लेता हूं। मीडिया हूं मैं। महाभारत 18 दिन तक होती रही। वेदव्यास ने गीता में 18 अध्याय लिखे। कौरव-पांडवों की सेना की 18 टुकड़ियां थीं। युद्ध के मुख्य सूत्रधार 18 थे। युद्ध के बाद शेष रह गये योद्धा 18 थे। और आज मीडिया महाभारत में शत्रुकुल का नेटवर्क-18, अदभुत संयोग जैसा।

महाभारत, स्वतंत्रता संग्राम के साम्राज्यवाद विरोधी युद्धों की तरह वर्तमान मीडिया साम्राज्य भी आजादी के एक और आंदोलन के लिए देश के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और सूचना के अधिकार से संपन्न विशाल जनसमुदाय को आज मानो ललकार रहा है। कौरवों ने पांच गांव देने से इनकार कर दिया था, अंग्रेजों ने पूरा देश और मीडिया मठहारों ने पत्रकारों, बुद्धिजीवियों को सुई की नोंक भर भी साझेदारी नहीं। मैं पत्रकारिता की पुस्तक भी हूं, अपने समय, अपने समाज का आईना भी। मुझमें वह सब है, जो पत्रकारिता के लिए सत्य है, सुंदर है, शिव है। मैं उनके लिए हूं, जिन्हें अपने जीवन की सुंदरता से अथाह प्यार है। जिन्हें स्वयं के मनुष्य होने पर गर्व है। जो बेहतर मनुष्यों के बेहतर समाज के निर्माण के सपने देखते हैं। जो सबसे पहले, सबसे अधिक मनुष्यता से प्यार करते हैं। उस पर विश्वास करते हैं जो। वह हूं मैं। मीडिया हूं मैं। मुझमें पत्रकारिता के समस्त प्रिय छात्रों को अपने भविष्य के सपनों की अनगिनत छवियां दृष्टिगोचर हो रही हैं। ताकि वह पत्रकारों की ऐसी पीढ़ी का आधार स्तंभ बन सकने का साहस कर सकें, जिससे चौथा स्तंभ शर्मिंदित न हो फिर कभी।

मेरे इस श्वेतपत्र में उन पत्रकार साथियों का दुखदर्द, जहर पीते-पीते नीली पड़ गयी अथाह पीड़ा और आक्रोश साझा है, जिनके लिए बने श्रमजीवी कानूनों को अपहृत कर लिया गया है, जिनके लिए वेजबोर्ड की पंचायतें अनसुनी-अनावश्यक-सी कर दी गयी हैं। इसमें उन अतिशोषित स्ट्रिंगरों और ग्रामीण पत्रकार साथियों की रोषभरी आपबीती भी है, जिन्हें प्रतिदिन बारह से सोलह घंटे तक काम के बदले महीने में दुत्कार जैसा हजार-पांच सौ रुपये का मानदेय थमा दिया जाता है, और सिरहाने बैठे सेठ की खतरनाक चुप्पी के सम्मान में, जिनसे एनजीओ चला रहे लाइजनर संपादक मिलना भी पसंद नहीं करते हैं। सिर्फ दाम का हिसाब मांगते रहते हैं, काम के पारिश्रमिक का नहीं। ‘उनकी पत्रकारिता’ के इस श्वेतपत्र में पेडन्यूज का आद्योपांत इतिहास है, और है मतदाताओं, पाठकों, चुनाव आयोग और प्रेस परिषद की आंखों में धूल झोंकते हुए लाखों-करोड़ों रुपये उगाह कर विज्ञापनों को समाचार के रूप में परोसने वाले सफेदपोशों का कमंडलाचार भी।

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Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2014

Pulisher

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