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मीरा और महात्मा
सन् 1925, भारत का स्वतंत्रता संग्राम बिखरी हुई हालत में था, नेताओं के बीच मतभेद पैदा हो रहे थे, और पूरे देश में साम्प्रदायिक वैमनस्य की घटनाएँ हो रही थीं। इस दौरान, सक्रिय राजनीति से अलग-थलग बापू गाँधी साबरमती आश्रम में अपने जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण गतिविधि में संलग्न थे। वे आत्मानुशासन, सहनशीलता और सादगी के उच्चतर मूल्यों को समर्पित एक समुदाय की रचना में व्यस्त थे। बापू की इसी दुनिया में पदार्पण हुआ एक ब्रितानी एडमिरल की बेटी मेडलिन स्लेड का जो बाद में मीरा के नाम से जानी गईं।
गाँधी जी के लिए जहाँ वास्तविक आध्यात्मिकता का अर्थ था आत्मानुशासन और समाज के प्रति समर्पण, वहीं मीरा मानती थीं कि सत्य और सम्पूर्णता का रास्ता मानव रूप में साकार शाश्वत आत्मा के प्रति समर्पण में है, और यह आत्मा उन्हें गाँधी में दिखाई दी। इस प्रकार दो भिन्न आवेगों से परिचालित इन दो व्यक्तियों के मध्य एक असाधारण साहचर्य का सूत्रपात हुआ।
विख्यात मनोविश्लेषक-लेखक सुधीर कक्कड़ ने बापू और मीरा के 1925 से लेकर 1930 तक फिर 1940-42 तक के समय को इस उपन्यास का आधार बनाया है, जिस दौरान, लेखक के अनुसार वे दोनों ज्यादा करीब थे। ऐतिहासिक तथ्यों की ईंटों और कल्पना के गारे से चुनी इस कथा की इमारत में लेखक ने बापू और मीरा के आत्मकथात्मक लेखों, डायरियों और अन्य समकालीनों के संस्मरणों का सहारा लिया है।
राष्ट्रपिता को ज्यादा पारदर्शी और सहज रूप में प्रस्तुत करती एक अनूठी कथाकृति।
बापू, मैं किसी मूर्ति की नहीं बल्कि जीवित देवता की पूजा करती हूँ। आप शाश्वत हैं। अनादि, शाश्वत की पूजा करना बुतपरस्ती नहीं हैं। दरअसल, कभी-कभी मैं सोचती हूँ। आप पत्थर की मूर्ति होते। तब मैं आपको हर सुबह नहाती, चन्दन का लेप करती, और आपके पैरों पर पुष्प-धूप चढ़ाती। आप अपने पैरों को हटा नहीं पाते और मुझे पूजा करने देते। आप मेरे प्रेम, भक्ति को स्वीकार क्यों नहीं कर सकते ? क्या आप ऐसे भगवान हैं जो अपने परम भक्त से दूर होना चाहते है ? या आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए परीक्षा है, जैसा कि हिन्दू देवी-देवता अपने भक्तों और सन्तों की लिया करते हैं। क्या आप यह जाँचना चाहते हैं कि मैं कितना तिरिस्कार सह सकती हूँ और फिर भी प्रेम करना नहीं छोड़ती ? ओह मेरे प्रिय आपको आश्चर्य होगा कि मैं कितना कुछ सह सकती हूँ यद्यपि मुझमें कमजोरी भी उभरती है।… इस कमजोरी पर मुझे विजय पाना ही होगा। आप अक्सर कहते हैं-‘मुझे खुद को शून्य बनाना होगा ताकि ईश्वर मेरे माध्यम से काम करें, जहाँ चाहे उधर ले जाए।’ अपने ईश्वर के लिए मुझे भी खुद को शून्य बनाना होगा। और ओह मेरे प्रिय चिकित्सक, मेरे रोग की आपने कितनी गलत पहचान की है। आप से वियोग ही मेरा रोग है। आपकी अनुपस्थिति ही मेरी व्यथा है। मेरे रोग का एक ही उपाय है- आपकी उपस्थित आपकी वापसी मेरा डॉक्टर ही मेरे रोग का कारण है वही मेरा इलाज है और एकमात्र चिकित्सक।
- आपकी मीरा
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Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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