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मुझे मुक्ति दो
दीर्घकाल तक अपनी धरती पर प्रवासी बनी हुई थीं इस युग की अग्निकन्या तसलीमा नसरीन। आज वह सचमुच प्रवासी हैं। किस हाल में है वह निर्वासित नारी ? वह जिस हाल में है इसी का रोजनामाचा है ‘मुझे मुक्ति दो’। अपने आँसुओं को कलम में डुबोकर तसलीमा नसरीन जैसे लगातार अपने दिल की आग का स्पर्श किये जा रही हैं। वह आग कभी सवाल उठाती है – ‘अपने देश में थी प्रवासी/अब परदेश में प्रवासी/तब कहाँ है मेरा देश ?’ कभी वह बेहद कातर होकर कहती हैं – ‘असल में भात के स्पर्श से भात नहीं/लगता मुट्ठी में आ जाता है भरपूर बांग्लादेश।’ इसके साथ उनके सामने वह अन्तराष्ट्रीय परिदृष्य उजागर होता है जहाँ ‘नारी निर्यातित पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण/नारी निर्यातित घर में, बाहर/नारी निर्यातित काले केशों वाली हो या सुनहरे/आँखें उसकी भूरी हों या नीली।’
इस सत्योद्घाटन और आत्मोन्मोचन का ही एक अनन्य प्रतिवेदन है यह भिन्न प्रकार का एक काव्य संकलन-‘मुझे मुक्ति दो’।
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Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2012 |
Pulisher |
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