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मुक्तिगाथा : नामदेव ढसाल की कविताएँ
मराठी के विख्यात कवि नामदेव ढसाल की कविताओं के नये चयन का हिंदी अनुवाद में प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण घटना है। चयनकर्ता एवं अनुवादक सुपरिचित लेखक निशिकान्त ठकार हैं। पहले भी नामदेव ढसाल के बहुत प्रभावशाली चयन हिंदी में आए हैं। आज फिर इस नये चयन को पढ़ते हुए लगता है कि हर थोड़े अंतराल पर नये और किंचित् भिन्न अनुवादों के आने से लक्ष्य भाषा में नयी संपन्नता आती है; साथ ही एक बिल्कुल नये स्वर का हठात् प्रवेश उस भाषा को हिलोड़कर एक बार फिर अपना ही आत्म-परीक्षण करने को विवश करता है। नामदेव ढसाल के इस संकलन का इस समय प्रकाशन इसीलिए विशेष महत्त्व रखता है।
नामदेव ढसाल मराठी और भारतीय दलित कविता के सर्वाधिक व्यापक और प्रशस्त स्वर हैं। तेलुगु और मराठी की दलित कविता ने समस्त भारतीय कविता को गहराई से प्रभावित किया और तब से भारतीय कविता वही नहीं रह गयी जो पहले थी। नामदेव ढसाल की कविता और सारी दलित कविता व्यवस्था विरोधी, सत्ता विरोधी परिवर्तनकामी कविता है। जैसा कि ढसाल कहते हैं वर्णयुद्ध और वर्गयुद्ध एक साथ लड़ते हुए इस कविता ने मनुष्य की गरिमा और स्वाधीनता को और मानव देह की नैसर्गिक पवित्रता को स्थापित किया-सूर्यफूल की तरह सूर्योन्मुख होना ही होगा…मैं ऐसे जीने से इनकार करता हूँ जहाँ आदमी ही आदमी को खाता रहता है। इसी के साथ भारतीय जीवन का वह अँधेरा और नरक सामने आया जो अब तक ढका-दबा था। इसके साथ एक नयी भाषा आयी, नया काव्यशास्त्र-‘पादने से हिल जाता है पीपल’-और फाश गालियों का ज़ख़ीरा जिसने बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के कविता के भद्रलोकीय आभिजात्य को तोड़ दिया। आज ढसाल को पढ़ते हुए एक बार फिर लगा कि यहाँ कविता की भाषा हमारे समाज की गंदगी और अश्लीलता को उघाड़कर हमें भावी की पवित्रता में ले जाती है जिसका अप्रतिम उदाहरण है ‘इंसान को’। ढसाल की कविता हमें बेहतर और पवित्र इंसान बनाती है हमारे ही नालों-परनालों कूड़े-कचरे को सामने रख कर।
नामदेव ढसाल हमारे समाज और जीवन की निर्मम आलोचना और भर्त्सना करते हैं-वर्ण व्यवस्था, संसदीय, राजनीति, पूँजीवाद, नस्लभेद, साम्राज्यवाद और खुद व्यक्ति की धूर्तता और पतन। ढसाल बाहरी और भीतरी पतन को जोड़कर देखते हैं। इस चयन को पढ़ते हुए कुछ कविताएँ हमें हिला देती हैं। कभी-कभी लगता है क्या ऐसी कविताएँ आज लिखी जा सकती हैं बिना पाबंदी और जेल के ख़ौफ़ के। कितने विराट साहस, अबाध दृष्टि और आंतरिक स्वाधीनता की दरकार है इसके लिए। यह भी कि ऐसी कविता केवल नामदेव ढसाल ही लिख सकते हैं क्योंकि उन्होंने जो भोगा है वह दूसरों ने नहीं भोगा और यह भी कि यह एक समूचे मनुष्य की कविता है, संपूर्ण देह से लिखी हुई। ढसाल विद्रोह और स्वप्न के कवि हैं। हर तरह के अन्याय और जुल्म के ख़िलाफ़-मैं अपने शब्दों के साथ फासिज्म के ख़िलाफ़ हूँ। नामदेव ढसाल सत्ता और हुकूमत के सबसे प्रखर विपक्ष- कवि हैं और इसीलिए एक बार फिर नयी वजहों से ज़रूरी।
डॉ. अंबेडकर पर लिखी कविताएँ बार-बार हमें बुलाती हैं, बेहद मार्मिक और तल्ख़। माँ और रमाबाई, प्रेमिका और पत्नी पर लिखी कविताएँ भारतीय कविता की अक्षय निधि हैं। इन कविताओं को पढ़कर डॉ. अंबेडकर के प्रति प्रेम और श्रद्धा से सिर झुक जाता है। ऐसे महापुरुष कम होते हैं जो केवल बाह्य समाज को नहीं, व्यक्ति के आभ्यंतर को भी परिवर्तित कर दें। ये कविताएँ ढसाल की और हम सब पाठकों की महान कविताएँ हैं। यहीं पर यह जोड़ना जरूरी है कि नामदेव ढसाल के यहाँ विद्रोह और नवदृष्टि के अनेक अप्रत्याशित कोण हैं। ढसाल संपूर्ण मनुष्य और जीवन के कवि हैं। नामदेव ढसाल ने मराठी और ब्याज से हिंदी को भी नया सौंदर्य दिया। निशिकांत ठकार के अनुवाद ने हमें कुछ नये पद जैसे जनमगाँव, कानाबाती, निद्रानाश और सम सोच वाले सच्चे वामी, दिये और हिंदी को समृद्ध किया जो कि अनुवाद का एक ज़रूरी काम है।
इस संग्रह में ढसाल के कवि के नये-नये पक्ष प्रगट होते हैं और भारतीय कविता की संपन्नता सिद्ध होती है।
यह चयन नामदेव ढसाल के पूरे कवि व्यक्तित्व को प्रस्तुत करता है, सर्वांगीण। मराठी से चलकर ज्वालामुखी की यह बेली हिंदी में प्रशस्त हो रही है।
– अरुण कमल
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Binding | Paperback |
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Authors | |
ISBN | |
Pages | |
Language | Hindi |
Publishing Year | 2021 |
Pulisher |
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