Muktipath

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Muktipath

Muktipath

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Author: Swami Avdheshanand Giri

Availability: 5 in stock

Pages: 226

Year: 2016

Binding: Paperback

ISBN: 9788131003992

Language: Hindi

Publisher: Manoj Publications

Description

मुक्तिपथ

संसार नाम-रूपात्मक अर्थात सीमायुक्त है। नाशवान वस्तु दुख का कारण होती है और जो असीम है, उसे नश्वर होना चाहिए। इसके विपरीत इसका ज्ञाता एवं मूल्य कारण आत्मा न असीम है, न नश्वर है और न ही दुख का हेतु है। वह असीम होने के कारण ही असीम संसार का ज्ञाता है। असीम ही शाश्वत हो सकता है। इसलिए आत्मा को आदि, मध्य और अंतहीन कहा गया है। संसार की वस्तुएं परिणामी कही गई हैं, क्योंकि उसमें परिवर्तन के अनेक लक्षण दृष्टिगत होते हैं। आत्मा में इनसे किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता। वह सदा एकरस और नित्य रहने वाला है।

वस्तुतः आत्मा काल की गति से परे है। काल की गति-उत्पत्ति विचार से होता है। विचार बुद्धि की उत्पत्ति है लेकिन आत्मा बुद्धि से भी परे है। इसलिए वह काल की सीमा में नहीं आ सकता। देश और काल से परे होने के कारण ही आत्मा अभिवाज्य है और एक शुद्ध चेतना में विभाजन संभव नहीं है। आत्मा की चेतना बोध-स्वरूप है। वह जीव की जाग्रत, स्वप्न तथा सुसुप्ति—सभी अवस्थाओं को प्रकाशित करती है। रूप और नाम तो संसार के लक्षण हैं। इसीलिए संसार सीमित, नश्वर और दुख का कारण है किंतु सत्-आत्मा अरूप है। अरूप वस्तु की कोई अवधारणा नहीं हो सकती। उसका कोई मानसिक चित्र नहीं बनता। ऐसे विचित्र तत्व को अविरोधी कह सकते हैं। उस अद्भुत तत्व के दो अन्य विशेष लक्षण हैं—चित्त और आनंद।

आत्मा एक है और उसके सामने कोई दूसरा तत्व नहीं है। इसलिए उसकी पहचान लक्षण बताकर ही की जा सकती है। लक्षण दो प्रकार के होते हैं—स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण। स्वरूप लक्षण वस्तु के किसी कार्य या स्थान विशेष का संकेत करते हैं। ये लक्षण वस्तु में सदैव विद्यमान नहीं रहते। आत्म तत्व भी अद्वितीय वस्तु है। उसकी पहचान स्वरूप और तटस्थ लक्षणों द्वारा कराई जाती है। सच्चिदानंद उसके आत्म स्वरूप का साक्ष्य है।

जिस रचना-काल में वह लक्षण रहता है, उसके समाप्त होने पर वह विलीन हो जाता है। अनित्य, अव्यक्त एवं अद्भभुत आदि बुद्धि लक्षण भी संसार-सापेक्ष हैं। अतः आत्म तत्व की खोज करने के लिए ध्यान में साधक को तटस्थ लक्षणों की सहायता से अनात्म तत्वों का अतिक्रमण करके अपने सत्-स्वरूप के निकट पहुंचकर उसमें आत्मगत चिंतन के द्वारा स्वरूप लक्षणों की खोज करनी चाहिए। पहले अपनी सत्ता का अनुभव करें, फिर उस सत्ता के स्वरूप में जो चेतना कार्य कर रही है, उसकी ओर ध्यान दें और तब उस चेतना-अनुभूति में होने वाले आनंद को समझें, उसका उपभोग करें। उस समय अनुभव होगा कि एकमात्र मैं ही, मेरी सत्ता ही चेतना स्वरूप है। चेतना और आनंद में कोई अंतर नहीं है—यह सब मानो एक-दूसरे के पर्याय हैं। इसके बाद इस चेतना की सीमा खोजने लगें तो वह असीम दिखाई देगी। अपने ही अंदर संपूर्ण विश्व का अनुभव होगा।

श्रुति वाक्यों के अनुसार चेतना ही सब कुछ है। नाम-रूप से न सही, तत्व रूप से रज्जु में सर्परूप में ब्रह्म ही है। जिसके आत्मा का अनुभव हो जाता है, वह अपने में ही सब कुछ देखता है। आत्मज्ञान हो जाने पर यह अनुभव होने लगता है कि मैं ही ब्रह्म हूं, मैं ही संपूर्ण चेतना हूं, जो सभी में व्याप्त है। उपनिषदों में कहा गया है—अहं ब्रह्माऽस्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं।

– गंगा प्रसाद शर्मा

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Paperback

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Publishing Year

2016

Pulisher

Language

Hindi

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