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Description
न जाने कहाँ कहाँ
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित बांग्ला की सर्वाधिक चर्चित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी की अधिकांश रचनाएं मध्य एवं निम्न वर्ग की पृष्ठभूमि में लिखी गयी हैं। प्रस्तुत उपन्यास के पाठकों का सम्बन्ध भी इन्हीं दो वर्गों से है। प्रवास जीवन, प्रवास जीवन की बहू चैताली, मौसेरी बहन कंकना दी, छोटा बेटा सौम्य, विधवा सुनीला, सुनीला की अध्यापिका बेटी व्रतती, गरीब अरुण और धनिक परिवार की लड़की मिन्टू – ये सभी पात्र अपने-अपने ढंग से जी रहे हैं। उदाहरण के लिए, प्रवास जीवन ? विपत्निक हैं। घर के किसी मामले में अब उनसे पहले की तरह कोई राय नहीं लेता। उनसे बातचीत के लिए किसी के पास समय नहीं है। रिश्तेदार आते नहीं हैं, क्योंकि अपने ही घर में किसी को ठहराने का अधिकार तक उन्हें नहीं है। इन सब से दुःखी होकर भी वह विचलित नहीं होते। सोचते हैं कि हम ही हैं जो समस्या या असुविधा को बड़ी बनाकर देखते हैं, अन्यथा इस दुनिया में लाखों लोग हैं जो किन्हीं कारणों से हमसे भी अधिक दुःखी हैं। और ? भी अनेक-अनेक प्रसंग है जो इस गाथा के प्रवाह में आ मिलते हैं। शायद यही है दुनिया अथवा दुनिया का यही नियम। जहाँ तहाँ, जगह-जगह यही तो हो रहा है।
उपन्यास का विशेष गुण है कथ्य की रोचकता। हर पाठक के साथ कहीं न कहीं कथ्य का रिश्ता जुड़ जाता है। जिन्होंने आशापूर्णा देवी के उपन्यासों को पढ़ा है वे इसे पढ़ने से रह जाये ऐसा हो ही नहीं सकता।
मैं अब देख रहा हूँ मैंने यह एक निरर्थक ज़िद की थी। दरअसल हमारी दृष्टि हर समय स्वच्छ नहीं रहती। अपने चारों ओर एक घेरा बनाकर हम अपने को उसी में कैद कर लेते हैं, और फिर अपना ही दुःख, अपनी वेदना, अपनी समस्या, अपनी असुविधा-इन्हें बहुत भारी, बहुत बड़ा समझने लग जाते हैं और सोचते हैं कि हमसे बुरा हाल और किसी का नहीं होगा, हमसे बड़ा दुःखी इन्सान दुनिया में नहीं। जब नज़र साफ़ कर आँखें उठाकर देखता हूँ तो पाता हूँ-दुनिया में कितनी तरह की समस्याएँ हैं। शायद हर आदमी दुःखी है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2012 |
Pulisher |
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