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Description
नेपथ्य राग
‘नेपथ्य राग’ उस रागिनी की कथा है जो युग-युगान्तर से समाजरूपी रंगमंच के केन्द्र में आने के लिए संघर्षरत है। इसी संघर्ष को नाटक प्रस्तुत करता है इतिहास और पौराणिक आख्यान की देहरी पर प्रज्वलित एक दीपशिखा के माध्यम से, जिसे नाम मिला है खना।
नाटक का आरम्भ आधुनिक परिवेश में कथावाचन शैली में होता है जहाँ एक कामकाजी युवती मेधा कार्यालय में अपने पुरुष सहकर्मियों से सहयोग न मिल पाने के कारण दुःखी है। मेधा इन स्थितियों की समीक्षा करना चाहती है कि तभी उच्च पदाधिकारी उसकी माँ उसे दृष्टान्त के रूप में एक कहानी सुनाती है जो मेधा के दर्द को एक बृहत्तर आयाम देती है-खना की कहानी। माँ और मेधा के सम्भाषण के सूत्र में खना यानी एक प्रतिभावान, अध्यवसायी स्त्री के दर्द की कथा को पिरोया गया है।
नाटक का पृष्ठाधार है चौथी-पाँचवीं शताब्दी की उज्जयिनी जब वहाँ मालवगणनायक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन था। इसी समय एक ग्रामबाला खना की ज्ञान-प्राप्ति की तृषा उसे साहित्य व कला के धाम उज्जयिनी ले आती है। अपनी विलक्षण बुद्धि एवं एकनिष्ठ जिज्ञासा के कारण उसे प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर का शिष्यत्व प्राप्त होता है। शीघ्र पृथुयशस खना के ज्ञान से ढँके अक्षत सौन्दर्य के प्रति आसक्त है। खना के गुरु आचार्य वराह अब उसके श्वसुर भी हैं।
वराह मिहिर विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक हैं। उनका राजसभा से सम्बन्ध खना देवी की बढ़ती ज्ञान-कीर्ति को वहाँ तक ले जाता है। विक्रमादित्य ज्ञान के आलोक से दीप्त इस व्यक्तित्व की ओर बहुत तेज़ी से आकृष्ट होते हैं। वे खना देवी को अपनी राजसभा में एक सभासद के रूप में अलंकृत करना चाहते हैं। यहीं पुरुषप्रधान समाज के प्रतिनिधि नवरत्न इस प्रयास को कुटिल चातुर्य से ध्वस्त कर देते हैं। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्वयं खना के गुरु और श्वसुर आचार्य वराह तटस्थ रहकर इस षड्यंत्र का एक सक्रिय कारक बनते हैं। विक्रमादित्य के नवरत्न खना को सभासद के रूप में प्रत्यक्षतः स्वीकार करके राजसभा में एक मूक सभासद के रूप में उसके प्रवेश को ही अपनी सहमति प्रदान करते हैं। उनकी यह सहमति प्रकारान्तर से खना के विदुषी रूप का निषेध है।
नाटक के अन्त में मेधा यह जानने को उत्सुक है कि अन्ततः खना का क्या हुआ। माँ बताती है कि वास्तविक अन्त तो किसी को मालूम नहीं परन्तु कुछ का मानना है कि उसकी जिह्वा काट दी गयी, कुछ का मानना है कि अपने परिवार और श्वसुर को अपमान से बचाने के लिए उसने स्वयं अपनी जिह्वा काट ली। परन्तु तभी दादी इसे एक अन्य आयाम दे देती हैं यह कहकर कि उनकी दादी (दादी की दादी) बताती थीं कि खना की जिह्वा तो स्वयं वराह मिहिर ने काट ली थी।
दादी की इस उक्ति पर नाटक का अन्त होना प्रतीकात्मक है क्योंकि वैचारिक अभिव्यक्ति से रहित स्त्री ही समाज को स्वीकार्य रही है। यह दृष्टिकोण पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारम्परिक रूप से शताब्दियों से बहता चला आया है और इसने जनमानस में अपनी ज़मीन तलाश ली है। इसी ज़मीन पर समय-समय पर कहीं-कहीं फूटते हैं पौधे दर्द के, चुभन के- इस एहसास के कि खना शताब्दियों पहले भी नेपथ्य में थी और आज भी सही मायने में नेपथ्य में ही है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2023 |
Pulisher |
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