Nirgun Gaon Sagun Priti

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Nirgun Gaon Sagun Priti

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Author: Ashwini Kumar

Availability: 5 in stock

Pages: 295

Year: 2016

Binding: Hardbound

ISBN: 9788184420791

Language: Hindi

Publisher: Universal Voice

Description

निर्गुण गाँव सगुण प्रीति

भारतीय गाँव हजारों वर्षों से सांस्कृतिक रूप से तेजस्वी, सभ्यतागत रूप से समुन्तत व आनन्द व उत्साह के अक्षय-स्रोत थे। वे विदग्ध संसार में आत्माभिसार के लिए रम्य-कुंज थे। वे आत्मबोध के लिए मंगलमय वितान थे। तृषित मन के लिए रिमझिम-प्रस्रवित मधुर वारिवाह थे। वे आत्मनिर्भर, अपने आप में एक कुटुम्ब, दुलार और आत्मीयता की छाँव और केन्द्र की ओर ले जाने वाली शीतल दीर्घ-श्वास के समान थे। मृत्यु, पराजय, भय, विपन्नता के बावजूद भी वे भीतर-भीतर समृद्धि के आगार थे, जिससे एक ग्रामीण को कुछ भी न रख कर भी समस्त ब्रह्माण्ड के मालिक होने जैसा आभास होता रहता था। स्थावर-जंगम और लोक-परलोक तक में रिश्तेदारियाँ चलती थी। चन्दा ही नहीं, कौआ और सियार भी मामा थे। शादी-ब्याह, मंगलकार्य तथा तीज-त्यौहार में सभी नेवते जाते थे। कहीं चाँद मामा थे, तो धरती माई थी। एक तो क्या द्वादश-आदित्यों से अलग-अलग मधुपर्क का बायन मिलता रहता था। रात में खुले आसमान के नीचे अमृत झरता था। पवन की उनचास धाराओं के असंख्य घाटो पर मन पानी पीता था। षट-ऋतुओं की श्रृंगार-पीठिका पर हर माह, पाख, सप्ताह व दिवस नहीं, बल्कि निमेष तक सजता रहता था। कोयल रानी थी, वृषभ बड़का बाबू थे। गाय, माँ या मौसी तो गोवत्सा स्वसा जैसी होती थी। तोता, मैना, गौरैया पवित्र गुरुकुल की बहनें थी। बन्दर तथा चींटी को भी मालपूआ और चीनी मिलती थी। नीलकण्ठ की ऊर्ध्व-उड़ान नैहर की याद दिलाती थी। चींटे, मामाओं के झगड़े सुलझाते थे। वन का हर महीरुह हमें अँकवार में भरे रहता था, बाबा की तरह जो कभी-कभी अपनी सूखी दाढ़ी मुँह में रगड़ देते थे। सिवान, सीमा से बहुत आगे बढ़कर अगवानी करता था और तुरन्त कंधे पर चढ़ा लेता था-रास्ते भर कुछ न कुछ सोंधी चीज खिलाते और सोंधी गन्ध सुँघाते हुए। ढ़ेला-ढेला, नव-सृष्टि का गुप्त दस्तावेज था। ताल-तलैया लकदक दर्पण थे, अपने आप में झाँकने के लिए। कण-कण में तृप्ति अघाती थी। संतोष, चादर तान कर बेतान सोता था। कुछ भी अपना नहीं, पर सब कुछ सबका। घर, ओसारे, अलाव, पनघट, पनिसरा, आँगन, बारी और सिवान पर किसी का पहरा नहीं था और वे द्वाप, चतुष्पद औरखग-कुल, सब के लिए खुले थे। आदमी से लेकर वृक्ष और गगन से लेकर पवन तक सभी नेह-छोह, दान-त्याग और शील-तप की फुलवारी थे। गाँव में रुक्ख व पौधे अपनी पूरी उम्र हँस-हँसकर जीते थे।

– इसी पुस्तक से

 

अनुक्रमणिका

★         भूमिका

★         अपनी बात

★         प्रसीद ग्रामदेव

★         जंगल-भारती कोट

★         अरण्ड-शाखा से…

★         निर्गुण-गाँव, सगुण-प्रीति

★         यस्य उदये जगत्‌, सर्वम्‌ मंगलम्‌ भवेत

★         वसन्त-राग

★         ग्रामात्मा की नचिकेत अग्नि

★         साक्षी-वटराज

★         रक्‍ताभ-पलाश और फाल्गुन

★         काल-पात्र

★         नवसृष्टि-आस्वादन

★         मन-मिरगा

★         देह-यान

★         संख्या-योग

★         पीड़ा-प्रसंग

Additional information

Authors

Binding

Hardbound

Language

Hindi

ISBN

Pages

Publishing Year

2016

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