- Description
- Additional information
- Reviews (0)
Description
Description
निर्वासन
अखिलेश का उपन्यास ‘निर्वासन’ पारंपरिक ढंग का उपन्यास नहीं है। यह आधुनिकतावादी या जादुई यथार्थवादी भी नहीं। यथार्थवाद, आधुनितावाद और जादुई यथार्थवाद की खूबियाँ सँजोए असल में यह भारतीय ढंग का उपन्यास है। यहाँ अमूर्त नहीं, बहुत ही वास्तविक, कारुणिक और दुखदायी निर्वासन है। सूत्र रूप में कहें तो यह उपन्यास औपनिवेशिक आधुनिकता/मानसिकता के करण पैदा होने वाले निर्वासन की महागाथा है जो पूंजीवादी संस्कृति की नाभि में पलते असंतोष और मोहभंग को उद्घाटित करने के कारण राजनीतिक-वैचारिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हो गया है।
जार्ज लूकाच ने चेतना के दो रूपों का जिक्र किया है : वास्तविक चेतना तथा संभाव्य चेतना। लूकाच के मुताबिक संभाव्य चेतना को छूने वाला उपन्यास वास्तविक चेतना के इर्द-गिर्द मंडराने वाले उपन्यास से श्रेष्ठ है। कहने की जरूरत नहीं, ‘निर्वासन’ इस संभाव्य चेतना को स्पर्श कर रहा उपन्यास है जिसकी अभी सिर्फ कुछ आहटे आसपास सुनाई पड़ रही हैं। आधुनिकता के सांस्कृतिक मूल्यों में अन्तर्निहित विड़म्बनाओं का उद्घाटन करने वाला अपने तरह का हिंदी में लिखा गया यह पहला उपन्यास है।
‘निर्वासन’ सफलता और उपलब्धियों के प्रचलित मानकों को ही नहीं समस्याग्रस्त बनाता अपितु जीव-जगत के बारे में प्रायः सर्वमान्य सिद्ध सत्यों को भी प्रश्नांकित करता है। दूसरे धरातल पर यह उपन्यास अतीत की सुगम-सरल, भावुकतापूर्ण वापसी का प्रत्याख्यान है। वस्तुतः ‘निर्वासन’ के पूरे रचाव में ही जातिप्रथा, पितृसत्ता जैसे कई सामंती तत्त्वों की आलोचना विन्यस्त है। इस प्रकार ‘निर्वासन’ आधुनिकता के साथ भारतीयता की पुनरुत्थानवादी अवधारणा को भी निरस्त करता है। लम्बे अर्से बाद ‘निर्वासन’ के रूप में ऐसा उपन्यास सामने है जिसमे समाज वैज्ञानिक सच की उपेक्षा नहीं है किन्तु उसे अंतिम सच भी नहीं माना गया है।
साहित्य की शक्ति और सौंदर्य का बोध कराने वाले इस उपन्यास में अनेक इस तरह की चीजें हैं जो वैचारिक अनुशासनों में नहीं दिखेंगी। इसीलिए इसमें समाज वैज्ञानिकों के लिए ऐसा बहुत-कुछ है जो उनके उपलब्ध सच को पुर्नपरिभाषित करने की सामर्थ्य रखता है। कहना अनुचित न होगा कि उपन्यास की दुनिया में ‘निर्वासन’ एक नया और अनूठा प्रस्थान है।
Additional information
Additional information
Authors | |
---|---|
Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
Reviews
There are no reviews yet.