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Description
पाँच आँगनों वाला घर
‘‘राजन को अजीब-सा लगा-मनुष्यों की तरह घर भी बीतते हैं वे भी चलते हैं, समय के साथ सरकते हैं…अलबत्ता धीरे-धीरे। कुछ समय बाद घर का कोई टुकड़ा कहीं का कहीं पहुँचा दिखता है, कहीं से टूटा, कहीं जा मिला। घरों की शक्लें बदल जाती हैं…कभी-कभी इतनी कि पहचान में नहीं आतीं। हम घरों को अपनी हदों में घेरने को बेचैन रहते हैं पर उनकी स्वाभाविक धीमी-चाल उस दिशा की ओर होती है जहाँ वे घरों को तोड़ बाहर जमीन के खुले विस्तार से जा मिलें। इसलिए हर घर धीरे-धीरे खंडहर की तरह सरकता होता है।’’
– इसी उपन्यास से
करीब पचास वर्षों में फैली पाँच आँगनों वाला घर के सरकने की कहानी दरअसल तीन पीढ़ियों की कहानी है-एक वह जिसने 1942 के आदर्शों की साफ़ हवा अपने फेफड़ों में भरी, दूसरी वह जिसने उन आदर्शों को धीरे-धीरे अपनी हथेली से झरते देखा और तीसरी वह जो उन आदर्शों को सिर्फ पाठ्य-पुस्तकों में पढ़ सकी। परिवार कैसे उखड़कर सिमटता हुआ करीब-करीब नदारद होता जा रहा है…व्यक्ति को उसकी वैयक्तिकता के सहारे अकेला छोड़कर। गोविंद मिश्र के इस सातवें उपन्यास को पढ़ना अकेले होते जा रहे आदमी की उसी पीड़ा से गुज़रना है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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