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Description
प्रतिसंसार
अपने दो कहानी संग्रहों ‘दफ़न और अन्य कहानियाँ’ तथा ‘साज़-नासाज़’ के साथ मनोज रुपड़ा हिन्दी कथा-साहित्य में अपना महत्त्व सिद्ध कर चुके हैं। मनोज की कहानियों में जिस आख्यान वृत्ति को महसूस किया गया था उसी का विस्तार है उनका पहला उपन्यास—‘प्रतिसंसार’।
राजनीति, समाज, विचारधारा, विमर्श तथा चुनौतियों और समस्याओं के प्रति प्रचलित नारेबाज़ी और वितंडावाद के विरुद्ध ऐसे रचनाकार कम हैं जो इन जरूरी मुद्दों से अपनी रचना को असंपृक्त कुछ इस प्रकार करते हैं कि ऊपरी सतह पर ये दिखते नहीं बल्कि रचना का प्राण बनकर समुपस्थिति रहते हैं। ‘प्रतिसंसार’ इसका सशक्त उदाहरण है।
यह उपन्यास भूमण्डलीकरण, विस्फोटक सूचना क्रान्ति, बाज़ारवाद उपनिवेशवाद, नवफासीवाद से उत्पन्न कृत्रिम संसार को उसकी समस्त बीभत्सता और दुष्कांडों के साथ सजीव बनाता है, जिसकी प्रतिबद्धता असामाजिकता, संवादहीनता, संवेदना, स्मृति और स्वप्न के स्थगन अर्थात् निर्जीवता के प्रति है। संसार के बरक्स संसार की टकराहटों को मनोज रूपड़ा उपन्यास में अर्धविक्षिप्त नायक आनन्द के माध्यम से जिस सिनेमिटिक अन्दाज में व्याख्यतित करते हैं, वह संक्रमणकाल में जूझती हुई मनुष्यता का ‘क्रिटीक’ बनने से नहीं बच पाता।
सन्देह नहीं कि नये कथा शिल्प विधान के कारण यह उपन्यास पाठक को बहुत आकर्षित करेगा।
Additional information
Authors | |
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ISBN | |
Binding | Hardbound |
Language | Hindi |
Publishing Year | 2010 |
Pages | |
Pulisher |
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