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Description
प्रवंचना
भूमिका
एक विख्यात कवि का कहना है
यूनान, मिस्र, रोमा सब मिट गये जहां से,
कुछ बात ही कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
इस पद्यांश में कवि क्या कहना चाहता था, यह स्पष्ट नहीं होता, फिर भी जो कुछ इसमें समझ में आता है वह अति गम्भीर सत्य है। न यूनान मिटा है, न मिस्र, रोम भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। इन देशों में मनुष्य भी अभी भी रहते हैं और अपने को यूनान आदि देश का रहने वाला मानते हैं। उनमें अभी भी अपने देश के लिए भक्ति और प्रेम की भावना विद्यमान है। उक्त वाक्य के यदि शाब्दिक अर्थ लिए जाएँ तो पद्यांश निरर्थक-सा प्रतीत होता है। फिर भी कवि के उक्त कथन में तथ्य है।
यूनान, मिस्र और रोम ये प्राचीन महान् राष्ट्र थे। इन देश वालों ने भारी समर विजय किए थे। और अपने देश की मान-मर्याद, उसका प्रभुत्व और उसका दबदबा बहुत विस्तृत किया था। केवल यही नहीं प्रत्युत इन देशों के रहने वालों ने अपनी सभ्यता और आचार-विचार का प्रचार और विस्तार भी किया था। ये देश अभी भूतल पर हैं। इनमें मनुष्यों का भी वास है, परन्तु वे विचार और सिद्धान्त अब नहीं रहे जिनके लिए ये देश और इनके देसवासी प्रसिद्ध थे।
भारतवर्ष की बात इससे सर्वथा भिन्न है। भारत के रहनेवाले भी अपनी विशेष सभ्यता रखते थे। इनकी भी एक संस्कृति थी। ये अपनी संस्कृति और सभ्यता की प्रेरणा वेदों, उपनिषदों, ब्राह्मण-ग्रन्थों और वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि कथा-सागरों से लेते रहे हैं। भारत विजित हुआ। विदेशियों ने इस पर आक्रमण किए और यहाँ के लोगों की स्फूर्ति के स्रोतों पर कुठाराघात करने का यत्न किया। उस विचार और आचार के लोगों ने ही, जिन्होंने मिस्र, यूनान तथा अफ्रीका के उत्तरी किनारे के साथ-साथ के सब देसों को पददलित कर वहाँ के आचार-व्यवहार को मटियामेट कर दिया था, भारत पर भी आक्रमण किया। यहाँ सात सौ वर्ष तक राज्य भी किया और कोई उपाय नहीं छोड़ा जिससे यहाँ के रहनेवालों का आचार-विचार वैसा ही बन जाए जैसा कि यूनान, मिस्र और ईरान इत्यादि देशों के विजित होने पर बन गया था। परन्तु वह प्रेरणा वह स्फूर्ति जो भारत के रहने वाले लोगों को वेदों, पुराणों, उपनिषदों और प्राचीन साहित्यों और कथाओं से मिलती थी, अभी भी स्थिर है। आज भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो वेदों को निर्भ्रान्त मानते हैं। रामायण और महाभारत में लिखी श्रेष्ठ बातों को श्रद्धा, भक्ति और आदर से देखते हैं और उन पर आचरण करने का यत्न करते हैं।
इससे कवि का कहना कि यूनान इत्यादि जहान से मिट गये हैं पर हम अभी भी अपना नाम और निशान रखते हैं, सोलह आने सत्य है। एक विशेष विचार-धारा है, जिसके अनुसार भारत की जनता अपना पूर्ण श्रेष्ठ आचरण बनाने में यत्नशील रहती है और वह विचारधारा वैदिक काल से आज तक अटूट चली आ रही है। इससे कवि के यह कहने का अभप्राय कि ‘हस्ती मिटती नहीं हमारी’, मनुष्य की हस्ती से नहीं, प्रत्युत भारत की भारतीयता से है।
जातियों का आस्तित्व भौगोलिक सीमाओं से नहीं बनता। यह विचार की हिमालय से हिन्दमहासागर तक रहनेवाले भारतीय हैं और इनका परस्पर गठबन्धन रहना चाहिए, इतिहास से और युक्ति से भ्रममूलक सिद्ध हुआ है। यह न कभी रहा है न कभी रहेगा। इंग्लिस्तान, जर्मनी, फ्रांस इत्यादि छोटे-छोटे देशों में भी यह विचार कि वे एक देश में रहने मात्र से एक हैं कुछ काल के लिए चल सकता है परन्तु भारत जैसे विशाल देशों और साम्राज्यों में लोग केवल मात्र भौगोलिक बन्धनों से नहीं बँध सकते। लोगों को बाँधकर रखने के लिए तोप, बन्दूक अथवा अन्य शास्त्र भी सफल नहीं होते। यदि विशाल देशों में लोग एक बन्धन में बँध सकते तो वह अपने आचार-विचार और व्यवहार के नाते ही बँध सकते हैं। इसको सांस्कृति ऐक्य अथवा सांस्कृति गठबन्धन कहना चाहिए।
भारतवर्ष में संस्कृति वैदिक काल से अटूट चली आती है। नाम बदले, राज्य बदले और प्रजा भी बदली परन्तु संस्कृति ज्यूँ की त्यूँ चली आ रही है। वैदिक काल में देश का नाम ब्रह्मावर्त था, पश्चात् आर्यावर्त हुआ। इसके बाद भारतवर्ष, हिन्दुस्तान, अन्त में इण्डिया बना। इसी प्रकार इसमें सूर्यवंशी राजा हुए, चंद्रवंशी राजा हुए, हूण, सीदियन, मुसलमान इत्यादि आक्रमणकारी आए और या तो वापस लौट गए अथवा इसी भारतीय खान में भारतीय हो गये। जो वस्तु स्थिर रही, वह वैदिक, भारतीय अथवा हिन्दू संस्कृति है। यह क्यों संभव हुआ ? जब दूसरी संस्कृतियाँ काल का ग्रास बन गईं तो यह क्यों नहीं बनी ?
यह कोई चमत्कार नहीं है। न ही इसमें कोई अनहोनी बात है। इसमें भारतीय संस्कृति की विशेषता ही केवल कारण है। यह संस्कृति परमात्मा के विश्वास पर, कर्मफल मीमांसा पर, पुनर्जन्म सिद्धान्त पर अवलमिबित होने से सर्वश्रेष्ठ है ही, साथ ही राम, कृष्ण और अनेकानेक अन्य महाजनों के पावन चरित्रों से प्रेरणा प्राप्त कर भारतियों को सत्य मार्ग पर आरूढ़ करने में सफल होती है।
एक छोटे से पारिवारिक क्षेत्र में मैंने निम्न प्रकार की संस्कृति के साथ भारतीय संस्कृति के संघर्ष की कथा लिखी है। सब पात्र काल्पनिक हैं क्योंकि यह उपन्यास है। इसमें सत्य तो केवल विचारधाराओं में संघर्ष है। एक ओर वे लोग हैं, जो अपने प्रत्येक कर्म के फल की प्राप्ति को अनिवार्य मानते हैं। इस कारण प्रत्येक कार्य में अपने व्यवहार को ऐसा बनाने में लगे रहते हैं जैसा कि वे चाहते हैं कि लोग उनसे व्यवहार करें। दूसरी ओर वे हैं, जो यह मानते हैं कि वर्तमान जीवन में ही सबकुछ है। इससे से पूर्व और पश्चात् कुछ भी नहीं। इस प्रकार वे अपना जीवन अपने सुख और आनन्द के हेतु व्यतीत करते हैं। किसी दूसरी प्रकार से यदि वे कभी सद्वयवहार करते हैं तो अपने ही हित की कामना से अथवा विवश होकर। यही उनके जीवन की प्रवंचना है। इनमें पहले भारतीय हैं, दूसरे अभारतीय।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 1992 |
Pulisher |
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