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Description
प्रेरणा के पुष्प
दिव्य कथाओं का अनुपम संग्रह
लक्ष्य को स्पष्ट करना और साधनों का सही चुनाव जहाँ सद्गुरु की विशेषता होती है, वहीं वह प्रेरणा के मंत्र से शिष्य के आत्मविश्वास को डिगने नहीं देता। अर्जुन के लिए कृष्ण द्वारा विभिन्न स्थानों पर किए गये अलग-अलग संबोधन इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं शिष्य के मन में पैदा होने वाली हीन भावना को गुरु के वाक्य जो बल प्रदान करते हैं, उन्हीं के परिणाम स्वरूप तरह-तरह के विचारों से संत्रस्त वह निर्दोष और निर्विचार होकर निर्भय और निर्द्वन्द्व हो स्वामियों का स्वामी अर्थात् पूर्ण स्वतंत्र शहंशाह बन जाता है।
परमश्रद्धेय स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों का एक-एक वाक्य प्रेरणादायक है। उनके उपदेश में शास्त्र और अनुभव का अनूठा समन्वय है। वे आधुनिक विकास का जब विश्लेषण करते हैं, तो उससे उन शाश्वत मूल्यों की पुष्टि होती है, जिनका व्याख्यान उपनिषद् के ऋषियों ने किया है।
जिन साधकों को अध्यात्म की शब्दावली को समझ पाना कठिन मालूम पड़ता है उनके लिए स्वामी जी का साहित्य अत्यंत उपयोगी है-विशेषकर कथा-साहित्य। साधकों के लिए भी लाभकारी है यह। इसे पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है मानो आपके सद्गुरु अंतर्यात्रा में सदैव आपका हाथ थामे चल रहे हों। वे आपको तब तक चलते रहने के लिए कहते हैं, आपका हाथ नहीं छोड़ते, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।
आप-अपने जीवन की यात्रा में संपूर्णता और स्वतंत्रा का अनुभव करते हुए परमशांति को प्राप्त हों, यही हमारी कामना है-
मा कश्चिद्दुख भाग्भवेत्, कभी किसी को दुख का लेश न हो।
प्रकाशक
अपना काम समेटने के बाद जब चर्मकार जल से अपने हाथ-मुंह धोने लगा, तो नारद ने सोचा, अब शायद यह मंदिर जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चर्मकार ने गंदे कपड़े से ही अपने हाथ-पांव पोंछे और बैठ गया वहीं, घुटनों के बल, हाथ जोड़कर। वह भावविभोर होकर कह रहा था-‘‘प्रभो ! मुझे क्षमा कीजिएगा। मैं अनपढ़ व्यक्ति आपकी पूजा अर्चना का ढंग नहीं जानता। मेरी आप से यही विनती है कि कल भी मुझे ऐसी सुमति दीजिएगा कि आज की तरह ही आपके द्वारा दी गई जिम्मेदारी को ईमानदारी के साथ पूर्ण कर सकूँ।’’
भगवान विष्णु अदृश्य रहते हुए ही नारद के कानों में बुदबुदाए, ‘‘अब समझ में आया मुनिराज कि इस भक्त की उपासना श्रेष्ठ क्यों हैं ?’’
अब नारद भी देह की सुध भूले भक्त चर्मकार को निहार रहे थे।
।। अपनी बात ।।
अध्यात्म के रहस्यों का व्याख्यान करते समय शब्द अक्सर बौने पड़ जाते हैं। इसलिए वेदों ने ‘नेति नेति’ कहा, तो कवियों-ऋषियों ने ‘तदपि तव गुणानामीश पारं न याति’ कह कर सत्य को शब्दों में बांध पाने में अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। इसी से पुराण साहित्य का विकास हुआ। अमूर्त तत्व को समझाने के लिए ऐसे प्रतीकों और उदाहरणों का सहारा ऋषियों को लेना पड़ा, जिससे जिज्ञासु को परोक्षरूप से सत्य की झलक मिल सके। वे अपने इस लक्ष्य में सफल भी हुए। दर्शन शास्त्र में इस युक्ति को ‘चंद्रशाखा न्याय’ का नाम दिया गया है। जिस तरह द्वितीया की सूक्ष्म चंद्ररेखा को देखने के लिए व्यवहार में वृक्ष, शाखा, पत्ती आदि का सहारा लेना पड़ता है, जबकि उनसे चंद्ररेखा का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता, इसी प्रकार परम तत्व को जानने-समझने के लिए संसार और प्रकृति में घटित हो रही घटनाओं का आश्रय लेना आवश्यक हो जाता है। ये सांसारिक घटनाएं, जिन्हें महापुरुष अपने आख्यानों-व्याख्यानों में व्यक्त करते हैं, परमतत्व की ओर स्पष्ट रूप से संकेत करती हैं। इसी मायने में ये विशिष्ट हैं।
परमपूज्य स्वामी अवेधशानंद जी महाराज के प्रवचनों की पांडित्यपूर्ण शैली भाषा की दृष्टि से इतनी सुरुचि पूर्ण है कि उसके कथ्य-तथ्य को एक साधारण जिज्ञासु भी जान समझ सकता है। संस्कृत में एक उक्ति है-हितं मनोहारी च दुर्लभं वच:-ऐसा वचन जो मधुर हों और हितकारी भी अत्यंत दुर्लभ हुआ करते हैं। जिसकी औषधि रोग हर हो और मीठी भी उस वैद्य के पास जाने की इच्छा तो बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी को होगी। यही कारण है कि जहां भी महाराजश्री के प्रवचनों का आयोजन होता है, वहां जिज्ञासुओं का जमघट लग जाता है।
यह ऐसे ही सत्संगों, कथाओं और आयोजनों का साररूप ग्रंथ है यह। इसे पढ़कर उन्हें जीवन की दिशा मिलेगी जो अभी तक अज्ञान और मोह के अंधकार में भटक रहे हैं, और वे भी स्वयं में उत्साह की ऊर्जा को महससू करेंगे, जिनके कदम अंतर्द्वन्द्व की थकान से लड़खडा रहे हैं।
मुझे विश्वास है, यह पुस्तक आप सभी अध्यात्म जिज्ञासुओं लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध होगी।
– गंगा प्रसाद शर्मा
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2022 |
Pulisher |
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