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Description
राग दरबारी
राग दरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है। शुरू से आखीर तक इतने निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत् उपन्यास है।
फिर भी राग दरबारी व्यंग्य-कथा नहीं है। इसका संबंध एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे हुए गाँव की जिंदगी से है, जो वर्षों की प्रगति और विकास के नारों के बावजूद निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्त्वों के सामने घिसट रही है। यह उसी जिंदगी का दस्तावेज है।
1968 में राग दरबारी का प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना थी। 1970 में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 1986 में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखों दर्शकों की सराहना प्राप्त हुई। वस्तुतः राग दरबारी हिंदी के कुछ कालजयी उपन्यासों में एक है।
प्रस्तावना
‘राग दरबारी’ का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अन्तिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। तब से अब तक इसके दर्जनों संस्करण और पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। 1969 में ही एक सुविज्ञात समीक्षक ने अपनी बहुत लम्बी समीक्षा इस वाक्य पर समाप्त की : ‘अपठित रह जाना ही इसकी नियति है।’ दूसरी ओर इसकी अधिकांश समीक्षाएँ मेरे लिए अत्यन्त उत्साहवर्धक सिद्ध हो रही थीं। कुल मिलाकर, हिन्दी समीक्षा के बारे में यह तो स्पष्ट हो ही गया कि एक ही कृति पर कितने परस्पर-विपरीत विचार एक साथ फल-फूल सकते हैं। उपन्यास को एक जनतांत्रिक विधा माना जाता है। जितनी भिन्न-भिन्न मतोंवाली समीक्षाएँ-आलोचनाएँ इस उपन्यास पर आईं, उससे यह तो प्रकट हुआ ही कि यही बात आलोचना की विधा पर भी लागू की जा सकती है।
जो भी हो, यहाँ मेरा अभीष्ट अपनी आलोचनाओं का उत्तर देना या उनका विश्लेषण करना नहीं है। दरअसल, मैं उन लेखकों में नहीं हूँ जो अपने लेखन को सर्वथा दोषरहित मानकर सीधे स्वयं या किसी प्रायोजित आलोचक मित्र द्वारा बताए गए दोषों का जवाब देकर विवाद को कुछ दिन जिन्दा रखना चाहते हैं। मैं उनमें हूँ जो मानते हैं कि सर्वथा दोषरहित होकर भी कोई उबाऊ और स्तरहीन हो सकती है जबकि कोई कृति दोषयुक्त होने के बावजूद धीरे-धीरे क्लासिक का दर्जा ले सकती है। दूसरे, मैं प्रत्येक समीक्षा या आलोचना को जी भरकर पढ़ता हूँ और खोजता हूँ कि उससे अपने भावी लेखन के लिए कौन-सा सुधारात्मक अनुभव प्राप्त किया जा सकता है।
‘राग दरबारी’ की प्रासंगिकता पर समीक्षाकारों में मुझसे बार-बार पूछा गया है। यह सही है कि गाँवों की राजनीति का जो स्वरूप यहाँ चित्रित हुआ है, वह आज के राष्ट्रव्यापी और मुख्यतः मध्यम और उच्च वर्गों के भ्रष्टाचार और तिकड़म को देखते हुए बहुत अदना जान पड़ता है और लगता है कि लेखक अपनी शक्ति कुछ गाँवारों के ऊपर जाया कर रहा है। पर जैसे-जैसे उच्चस्तरीय वर्ग में ग़बन, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार और वंशवाद अपनी जड़ें मज़बूत करता जाता है, वैसे-वैसे आज से चालीस वर्ष पहले का यह उपन्यास और ज़्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है। कम-से-कम सामान्य पाठकों और अकादमीय संस्थानों में इसका जैसा पठन-पाठन बढ़ रहा है, उससे तो यही संकेत मिलता है।
इसके प्रकाशन के चालीसवें वर्ष में राजकमल प्रकाशन ने बिलकुल नए स्वरूप में इसका नया संस्करण निकालने का संकल्प किया है। इसके लिए मैं उक्त प्रकाशन के श्री अशोक महेश्वरी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ और आशा करता हूं, उनका यह प्रयास पाठकों के लिए और विशेषतः नए पाठकों के लिए आकर्षक सिद्ध होगा।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2021 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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