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रामायण की अद्भुत कथाएँ
लेखकीय
रामायण की विश्व-व्यापकता तो उस समय से बन चुकी थी जब 19वीं शताब्दी में लाखों निर्धन भारतीय विशेषरूप से अवध एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के निवासी रोजी-रोटी की खोज में भारत से सुदूर फिजी, मॉरीशस, त्रिनिडाड, गुयाना, सूरीनाम, जमैका, आदि देशों में पहुंचे और अपने साथ तुलसीदासकृत रामायण ले गए, जो हर संकट और संघर्ष में उनका सम्बल और सहयोगी बनी।
प्रवासी भारतीयों की दूसरी धारा भी पूर्व और पश्चिम के अनेक देशों में गई, जो अपेक्षाकृत नवीन है—विशेषरूप से 20वीं शताब्दी की और उसमें भी 1947 के भारत विभाजन के बाद की। गत शताब्दी में ही विभाजन से पूर्व लाखों की संख्या में दक्षिण भारतीय और गुजराती क्रमशः मलाया, बर्मा, श्रीलंका तथा अफ्रीकी आदि देशों में फैल चुके थे। ब्रिटेन और अमेरिका में भारतीयों का प्रवास अधिकांश इसी शताब्दी का है। इन भारतीयों के साथ भी रामायण की धारा विश्व के कोने-कोने में फैली, जिसका माध्यम चाहे रामचरित मानस रहा हो या वाल्मीकि रामायण अथवा कंबन रामायण आदि।
रामायण की तीसरी या अत्यंत सशक्त धारा पूर्व और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में गई, जो इन देशों की संस्कृति की अभिन्न अंग बनकर छा गई। चीन में भी जातक कथाओं के माध्यम से यह धारा पहुंच गई। इस धारा का प्रभाव इतना शक्तिशाली था कि वहां के कवियों ने अपने देशों की भाषाओं में रामायणें रचीं और उनमें स्थानीय रंग भर दिए।
इस धारा का और अधिक प्रवाह यह हुआ कि इन देशों में रामायण में वर्णित नगरों, नदियों, व्यक्तियों आदि के नाम रखे जाने लगे। फलस्वरूप कालान्तर में स्थानीय लोग यह मानने लगे कि रामायण की घटनाएं उनके देश में घटित हुईं। इन रामायणों में घटनाओं के निर्वाह में भले ही अनेक अंतर है, किंतु स्रोत वाल्मीकि रामायण ही मानी जाती है। कुछ रामायणों में विभिन्न प्रसंगों का निर्वाह रामकथा के विद्वानों या विज्ञ पाठकों को हास्यास्पद भी लग सकता है। यहां का रामायण धर्म और अध्यात्म से अछूती है, किंतु संस्कृति से पूरी तरह जुड़ी है। इसलिए भारत के अतिरिक्त एशियाई देशों की रामायण धारा को हम सांस्कृतिक धारा कह सकते हैं।
रामकथा की इस धारा की कुछ झलक दक्षिण-पूर्व एशिया में भी मिलती है। और सच बात तो यह है कि विश्व के इसी भाग ने राम और उनके देश को भली भांति समझा भी तथा उनकी महत्ता भी स्वाकीर की। थाईलैंड के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन में राम पूर्णतः समरस हैं। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस देश में कहीं-कहीं राम और बुद्ध के बीच कोई पृथकता की रेखा नहीं है। यहां के जीवन में दोनों का सहअस्तित्व है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बैंकाक स्थित शाही बुद्ध मंदिर है, जिसमें नीलम की मूर्ति हैं। यह मंदिर पूरे देश में बहुत प्रसिद्ध है तथा दूर-दूर से लोग इसके दर्शनार्थ आते हैं। मंदिर की दीवारों पर संपूर्ण रामकथा चित्रित है। इस देश की अपनी रामायण है—रामकियेन, जिसके रचयिता नरेश राम प्रथम थे। उन्हीं के वंश के नरेश राम नवम् वर्तमान में देश के शासक हैं।
थाईलैंड में राम के दर्शन एक स्थान पर अपने भव्यरूप में होते हैं और वह है बैंकाक स्थिति राष्ट्रीय संग्रहालय। इस संग्रहाल्य में जैसे ही आप प्रवेश करेंगे धनुर्धारी राम के दर्शन होंगे। अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि थाईलैंड में एक अयोध्या है और लवपुरी (लोपबुरी) भी। अयोध्या स्थित संग्रहालय की एक अधीक्षिका ने मुझे बताया था कि थाईवासियों का विश्वास है कि रामायण की घटनाएँ उनके देश में ही घटीं।
थाई जीवन में राम की लोक प्रियता की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसके प्रमाण यहां के शास्त्रीय नृत्य हैं, जिनमें रामकथा के दर्जनों प्रसंग प्रदर्शित किए जाते हैं। वे नृत्य आज भी थाईलैंड में लोकप्रिय हैं।
कम्बोडिया में राम के महत्व का जीता-जागता सबूत है अंगकोरवाट, जो दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा प्रतीक है। यहां बुद्ध शिव, विष्णु, राम आदि सभी भारतीय देवों की मूर्तियां पाई जाती हैं। इसका निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी में सूर्यवर्मन द्वितीय ने करवाया था। इस मंदिर में कई भाग हैं—अंगकोरवाट, अंगकोर थाम, बेयोन आदि। अंगकोरवाट में रामकथा के अनेक प्रसंग दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। जैसे सीता की अग्नि परीक्षा, अशोक वाटिका में रामदूत हनुमान का आगमन, लंका में राम-रावण युद्ध, वालि-सुग्रीव युद्ध आदि यहां की रामायण का नाम रामकेर है, जो थाई रामायण से बहुत मिलती-जुलती है। इस प्रकार लाओस और बर्मा आदि बौद्ध देशों के जीवन में भी रामकथा का महत्त्व है, जो नृत्य नाटकों और छायाचित्रों के माध्यम से देखा जा सकता है। यहां के बौद्ध मंदिरों में इनके प्रदर्शन होते हैं।
इंडोनेशिया में चाहे वालि का हिंदू हो या जावा-सुमात्रा का मुसलमान, दोनों ही राम को अपना राष्ट्रीय महापुरुष और राम साहित्य तथा राम संबंधी ऐतिहासिक अवशेषों को अपनी सांस्कृतिक धरोहर समझता है। जोगजाकार्ता से लगभग 15 मील की दूरी पर स्थित प्राम्बनन का मंदिर इस बात का साक्षी है, जिसकी प्रस्तर भित्तियों पर संपूर्ण रामकथा उत्कीर्ण है।
वालि में रामलीला या रामकथा से संबंधित नृत्य-नाटिकाओं की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. इस द्वीप का वातावरण पूर्णतः संस्कृतिमय है। इंडोयेशिया की प्रसिद्ध रामायण का नाम रामायण काकविन है। मलेशिया में रामायण मनोरंजन का अच्छा माध्यम है। यहां चमड़े की पुतलियों द्वारा रात्रि में रामायण के प्रसंग दिखाए जाते हैं। इस देश की रामायण का नाम हेकायत सेरीरामा है जिसमें राम को विष्णु का अवतार माना गया है। यद्यपि इस पर इस्लाम का प्रभाव भी स्पष्ट है। सिंहल द्वीप में कवि नरेशकुमार दास ने छठी शताब्दी में जानकी हरण काव्य की रचना की थी। यह संस्कृत ग्रंथ है। बाद में इसका सिंहली भाषा में अनुवाद हुआ। आधुनिक काल में जॉन डी.सल्वा ने रामायण का रूपान्तरण किया।
देवभाषा संस्कृत को पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों में स्थान मिलने के कारण वाल्मीकि रामायण से इनका परिचय शताब्दियों पूर्व हो गया था किंतु रामचरित मानस के प्रति पश्चिमी देशों का आश्चर्यजनक रूक्षान मुख्यतः गत शताब्दी से ही शुरू हुआ है, जिसका अनुवाद अभी तक लगभग सभी महत्त्वपूर्ण विश्वभाषाओं में हो गया है और अभी हो रहा है। फ्रांसीसी विद्वान गासां दतासी ने 1839 में रामचरित् मानस के सुंदर कांड का अनुवाद किया। फ्रांसीसी भाषा में मानस के अनुवाद की धारा पेरिस विश्विविद्यालय के श्री वादि विलन ने आगे बढाई।
अंग्रेजी में मानस का पद्यानुवाद पादरी एटकिंस ने किया जो बहुत लोकप्रिय है। इसका प्रकाशन हिंदुस्तान टाइम्स में देवदास गांधी ने करवाया था। इसी प्रकार के अनुवाद जर्मनी सोवियत संघ आदि में हुए। रूसी भाषा में मानस का अनुवाद करके अलेक्साई वारान्निकोव ने भारत-रूस की सांस्कृ़तिक मैत्री की सबसे शक्तिशाली आधारशिला रखी। उनकी समाधि पर मानस की अर्द्धाली ‘भलो भलाहिह पै लहै’ लिखी है, जो उनके गांव कापोरोव में स्थित है। यह सेट पीटर्सबर्ग के उत्तर में है। चीन में वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस दोनों का पद्यानुवाद हो चुका है। डच, जर्मन, स्पेनिश, जापानी आदि भाषाओं में भी रामायण के अनुवाद हुए हैं।
शोध-ग्रंथ के माध्यम से भी पश्चिमी देशों में यह धारा आगे बढ़ी है। माना जाता है कि हिंदी साहित्य में सर्वप्रथम इटली निवासी डॉ. टेसीटोरी ने लिखा और फ्लोरेंस विश्वविद्यालय में 1910 में उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी गई। विषय था—मानस और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन। दूसरा शोधग्रंथ लंदन विश्वविद्यालय में 1918 में जे.एन. कार्पेण्टर ने प्रस्तुत किया। विषय था—थियोलॉजी ऑफ तुलसीदास।
संतोष का विषय है कि रामायण की यह विश्वव्यापी भूमिका प्रकाश में आने लगी है और इसमें अनेक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक धाराओं के साथ अंतराष्ट्रीय रामायण सम्मेलनों की एक धारा की बी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसके अंतर्गत अब तक 12 देशों में 17 रामायण सम्मेलन हो चुके हैं। भारत से शुरू होकर कई विश्व-परिक्रमाएं कर चुकी यह सम्मेलन श्रृंखला एक विश्व सांस्कृति मंच के रूप में उभरकर आई है।
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रावण द्वारा कौशल्या का हरण
बहुत पहले समय की बात है। तब कोशल देश में कोशल नाम का एक बहुत ही पुण्यात्मा राजा राज्य करता था। उसकी विवाह-योग्य कौशल्या नाम की एक पुत्री थी, जिसका विवाह उसके पिता ने अयोध्या के राजा दशरथ के साथ करने का निश्चय किया था। विवाह का दिन निश्चित करके राजा ने दशरथ को बुलाने के लिए दूत भेजा। उस समय राजा दशरथ सरयू नदी में नौका पर बैठकर मित्रों तथा मंत्रियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे। लगभग उसी समय लंकापति रावण ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी के सामने आदरपूर्वक खड़ा उनसे पूछ रहा था।
‘‘हे ब्रह्मदेव ! मेरा मरण किसके हाथों से होगा ? यह आप स्पष्ट रूप से कहिए ?’’
रावण की बात सुनकर ब्रह्माजी ने कहा, ‘‘दशरथ की पत्नी कौशल्या से साक्षात् भगवान विष्णु अवतार लेकर उत्पन्न होंगे। उनके यहां तीन अन्य पुत्र भी पैदा होंगे जिनमें से राम तुम्हारे लिए काल रूप होंगे वही तुम्हारा विनाश करेंगे। कौशलराज ने ब्राह्मणों से पूछकर राजा दशरथ के लग्न का आज से पांचवां दिन निश्चित किया है।’’
ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर रावण बहुत से राक्षसों की सेना लेकर शीघ्र ही अयोध्या नगरी को चल दिया। वहां पहुंचकर उसने घोर युद्ध किया तथा नौका पर बैठे राजा दशरथ को पराजित किया। पाद-प्रहार से उनकी नौका को तहस-नहस कर दिया तथा सरयू के जल में डुबो दिया। उस समय और सब तो जल में डूब गए, परंतु राजा दशरथ तथा सुमंत नाम का मंत्री नाव के टूटे तख्ते पर बैठकर धीरे-धीरे जल प्रवाह के सहारे गंगा नदी में जा पहुँचे। वहां से बहते-बहते दोनों समुद्र में जा पहुंचे।
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Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher |
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