Ramkumar Bhramar Rachnavali (Vol. 1-3)
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रामकुमार भ्रमर रचनावली (1-3)
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रामकुमार भ्रमर रचनावली एक बहुखंडीय आयोजन है जिसमें भ्रमरजी के बहुविध विधा लेखन की उपलब्ध सभी रचनाओं के एकत्रीकरण का प्रयास किया जा रहा है। यथासंभव यह प्रयास भी किया जा रहा है कि गत तीस बरसों के अब तक के उनके साहित्य को काल–क्रमानुसार जुटाया जा सके ताकि भ्रमरजी के समग्र साहित्य पर शोध-कार्य करने वाले छात्रों व साहित्य-प्रेमियों को कृतियों के कृतित्व को जानने-समझने का अवसर मिल सके।
मूलतः उपन्यासकार के नाते प्रसिद्ध रहे श्री रामकमार भ्रमर की कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, व्यंग्य, रिपोर्ताज, यात्रा-विवरण, निबंध, सत्यकथाएँ, संस्मरण, डायरी, जीवनी-अंश, इंटरव्यूज, फिल्म पटकथाएँ, वार्ताएँ, भाषण, बाल-साहित्य, महत्त्वपूर्ण पत्र-व्यवहार, राजनीतिक-वैचारिक दिशादृष्टि आदि विभिन्न सामग्री इस रचनावली में मिल सकेगी।
प्रस्तुत रचनावली के इन तीन खंडो (महाभारत १, महाभारत २, महाभारत ३) में भ्रमरजी के अत्यधिक चर्चित वे बारह उपन्यास संकलित है, जो उन्होंने महाभारत को आधार बनाकर लिखे। हिंदी-साहित्य में इन उपन्यासों ने आश्चर्यजनक चर्चा और लोकप्रियता प्राप्त की। काल-क्रमानुसार इन उपन्यासों का सृजन श्री भ्रमर ने मूल महाभारत के गहन अध्ययन के पश्चात सन् १९८२ से ८४ के बीच किया था।
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धर्म क्या है और अधर्म कब, कहाँ, किस तरह हो जाता है ? यह एक ऐसा प्रश्न है, जो युग-युगों से मानव सभ्यता और संस्कृति के इतिहास में विद्वानों, ज्ञानियों और तपस्वियों के बीच चर्चा का बिषय रहा हैं। महाभारत के विभिन्न चरित्रों में युधिष्ठिर एक ऐसे चरित्र हैं, जो सामान्य मनुष्य का जन्म पाकर धर्म और कर्म के बीच सन्तुलित भाव से जीवन बिताने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। उन्होंने प्रत्येक कर्म का लेखा-जोखा धर्म की कसौटी पर करने की चेष्टा की है। समय–धर्म और शाश्वत-धर्म के बीच सन्तुलन बनाये रखने के प्रयत्न किए हैं। वे ही हैं जो धर्माधर्म को लेकर तत्कालीन विद्वानों और ज्ञानियों से बहुविध तर्क करते हैं, जीवन–मूल्य खोजते हैं, सत्यासत्य के निर्धारण की चेष्टा करते रहते हैं। इस सारी प्रकिया के बीच युधिष्ठिर ने संभवतः गहरा कष्ट भोगा है। उनके शेष चारों भाई मुखर हैं। वे क्रोध, आवेश और दुःख–सुख की अभिव्यक्ति अपने संवादों से अनेकानेक स्थानों पर कर देते हैं। हर क्रिया, प्रतिक्रिया उनसे उत्तर पा लेती है, किन्तु युधिष्ठिर सबसे अलग, शान्त–एक सीमा तक मौन पात्र हैं। कई-कई बार तो लगता है कि युधिष्ठिर की यह शान्ति कहीं उनकी कायरता तो नहीं है ?
पर सच यह है कि युधिष्ठिर का मौन ही उनके सबसे अधिक पीड़ा भोगने का प्रमाण है। उनका जीवन ‘कौरव-पांडव कथा’ की महत्त्वपूर्ण घटनाओं से तो जुड़ा है, किन्तु वह उस तरह घटनाप्रधान नहीं है, जिस तरह कर्ण, अर्जुन, दुर्योंधन आदि के चरित्र हैं… पहली बार में महसूस होता है कि युधिष्टिर केवल तर्कातर्क के चरित्र हैं, किन्तु गहरे पठन-पाठन के बाद लगता है कि युधिष्ठिर की चुप्पी ही उनकी अतिवेदना और वीरत्व हैं। वह किसी घटना से केवल प्रभावित होकर संवाद–भर की तात्कालिक प्रतिक्रिया देखकर मुक्ति नहीं पा सकते, अपितु उसे लेकर आत्मंथन का एक लम्बा दौर झेलते हैं…. यह झेलना कितना कष्टदायी है, कितना पीड़ाजनक या किस तरह छलनी कर डालने वाला-केवल युधिष्ठिर की ही तरह शान्त होकर सत्य की तहों तक पहुँचने वाले लोग जान सकते हैं। अपने समकक्ष चरित्रों की तुलना में युधिष्ठिर सबसे जटिल और सबसे सरल पात्र हैं। उनका ज्ञानमंथन उन्हें जटिल बनाता है, जबकि उनकी सत्यनिष्ठा उन्हें सरल बनाए रखती है। सरलता और जटिलता को एक साथ निबाहने की ये विलक्षण क्रिया ही उन्हें धर्मराज बनाती है।
– राजकुमार भ्रमर
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श्रीकृष्ण और अर्जुन की एक साथ स्तुति करते हुए उन्हें ‘नरनारायण’ कहा गया है। सम्भवतः मनुष्य और ईश्वरत्व के परस्पर सम्बन्ध और पूर्णता के लिए इससे बढ़िया अभिव्यक्ति किसी शब्द में कभी नहीं हुई हैं। ‘महाभारत’ के सामान्य पठन-पाठन में वे परस्पर मित्र, सबंधी, हमउम्र हैं और एक जोड़े की तरह लगते हैं, किन्तु वस्तुसत्य में वे एक ऐसे सनातन संबंध से भी जुड़े हैं, जिनकी ओर सहसा ध्यान नहीं जाता। यह संबंध हैं- मनुष्य की जिज्ञासा और समाधान का। प्रश्न और उत्तर का। प्यास और जल का। जीवन, जगत, समाज, संस्कृति, धर्म, व्यवस्था, राजनीति, मूल्य, आत्मा और निधित्व करते हैं, जिसके कारण वह उत्तरोत्तर विकास करता रहा है तथा श्रीकृष्ण उनके हर प्रश्न का तार्किक समाधान करते हुए उस अनन्त ज्ञान भंडार की तरह है जो निस्सन्देह लौकिक नहीं हैं। वह कभी समाप्त नहीं होता, उसके दाता हाथों में किसी पल कमजोरी नहीं दीख पड़ती और उसकी बहुविध पूर्णता यह विश्वास दिला देती है कि मनुष्य से इतर और पास निस्सन्देह कोई ऐसी शक्ति है, जो जड़-चेतन को संचालित करती है। वह विज्ञान की परिधि से बाहर ज्ञान के असीम आकाश में अपना उपस्थिति बोध कराती है। जो उसे पाना चाहता है या समझने की तनिक-सी इच्छा रखता है, वह श्रद्धा के सहारे सिद्धिमार्ग पर उसे प्राप्त कर सकता है। अर्जुन उसके प्रतीक हैं।
अर्जुन पौरूष–पूर्ण हैं, पराकमी, तेजस्वी भी हैं, किन्तु उनकी विचार–शीलता से भरे व्यक्तित्व को श्रीकृष्ण के बिना पूर्णता नहीं मिल पाती। वह प्रतिपल श्रीकृष्ण के केवल अनुयायी नहीं, अनुगत हैं। इस श्रद्धा ने ही उन्हें सिद्धि दी है। यह समर्पण ही उनकी महाशक्ति है। यह निष्ठा ही उनका ईश्वर–बोध है। इस उपन्यास में मैंने प्रयत्न किया है कि अर्जुन का श्रीकृष्ण युक्त यह भाव व्यक्त हो सके। अर्जुन–के-जीवन में सांसारिक सुख-दुःख और पीड़ा के अनेक अवसर आए हैं, किन्तु ऐसे प्रत्येक अवसर पर उन्होंने अपने बिखराव को किस तरह समेटा है और समेटकर कैसे उसे चिन्तन की दिशा दी है- यह भी अनुगत में उभर सके- मेरा प्रयत्न रहा है।
– रामुमार भ्रमर
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Pages | |
Language | Hindi |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher |
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