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रेत पर लहू
जाबिर हुसेन अपनी शायरी को ‘पत्थरों के शहर में शीशागरी’ का नाम देते हैं। संभव है, एक नदी रेत भरी से रेत रेत लहू तक ‘शीशागरी’ का यह तकलीफ देह सफर खुद जाबिर हुसेन की नज़र में उनके सामाजिक सरोकारों के आगे कोई अहमियत नहीं रखता हो। संभव है, वो इन कविताओं को अपनी डायरी में दर्ज बेतरतीब, बेमानी, धुध-भरी इबारतें मानते रहे हों। इबारतें, जो कहीं-कहीं खुद उनसे मंसूब रही हों, और जो अपनी तलिखयों के सबब उनकी याददाश्त में आज भी सुरक्षित हों। इबारतें, जिनमें उन्होंने अपने आप से गुफ्तगू की हो, जिनमें अपनी वीरानियों, अपने अकेलेपन, अपने अलगाव और अपनी आशाओं के बिंब उकेरे हों। लेकिन इन कविताओं में उभरने वाली तीस्वीरें अकेले जाबिर हुसेन की अनुभूतियों को ही रेखांकित नहीं करतीं। अपने-आप को संबोधित होकर भी ये कविताएं एक अत्यंत नाज़ुक दायरे का सृजन करती हैं। एक नाज़ुक दायरा, जिसमें कई-कई चेहरे उभरते-डूबते नज़र आते हैं। जाबिर हुसेन की कविताएं, बेतरतीब खाबों की तरह, उनके वजूद की रेतीली ज़मीन पर उतरती हैं, उस पर अपने निशान बनाती हैं। निशान, जो वक्त की तपिश का साथ नहीं दे पाते, जिन्हें हालात की तल्खयां समेट ले जाती हैं। और बची रहती है, एक टीस, जो एक-साथ अजनबी है, और परिचित भी।
यही टीस जाबिर हुसेन की कविताओं की रूह है। एक टीस जो, जितनी उनकी है, उतनी ही दूसरों की भी ! रेत रेत लहू की कविताएं बार-बार पाठकों को इस टीस की याद दिलाएंगी।
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Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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