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Description
सब सुखी हों
भर्तृहरि ने मानव स्वभाव का विभाजन करते हुए बताया है कि वे सत्पुरुष हैं जो अपने सुख की परवाह किए बिना सदैव दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। वास्तव में, इस श्रेणी के लोग दूसरों को अपने से भिन्न मानते ही नहीं हैं, इसलिए दूसरों को मिलने वाला सुख उनका अपना ही होता है। यह आत्मानुभूति का एक महत्वपूर्ण चरण है। आध्यात्मिक धरातल पर इसे आत्मविकास की श्रेष्ठ स्थिति कहा जा सकता है। यह अनुभव जब ‘चराचर’ के साथ जुड़ जाए तो ‘अद्वैत’ की अनुभूति के लिए मानो एक छोटी-सी छलांग ही शेष रह जाती है। असल में ऐसे लोगों की ही समाज में आवश्यकता है।
भर्तृहरि इसी तरह एक अन्य श्रेणी की भी चर्चा करते हैं, जो मनुष्य कोटि की है। इसमें कोई तब तक दूसरे के हित में लगा रहता है, जब तक उसका अपना अहित नहीं होता। यहां हित-अनहित की परिभाषा व्यक्ति से व्यक्ति बदल जाती है। क्योंकि सुख-दुख, हित-अनहित, लाभ-हानि जैसे शब्दों की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं है। यदि अनुकूल और प्रतिकूल के संदर्भ में इनकी परिभाषा करें, तो ये स्थितियां परिवर्तनशील हैं इसलिए इनकी दोषमुक्त परिभाषा नहीं हो पाती।
‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ ऋषियों द्वारा की गई महत्वपूर्ण प्रार्थना के मंत्र का एक अंश है। ऋषियों ने सुखी होने के लिए एक अचूक सूत्र दिया है-सुखी होना चाहते हो, तो सभी के सुख की कामना करो। जब सब सुखी होंगे, तो तुम कैसे दुखी हो सकते हो। बाहर से आने वाली सुख की बयार तुम्हें सुख से भर देगी, और तुम्हारे भीतर दूसरों को सुखी करने की सक्रिय भावना तुम्हारे पास दुख को फटकने तक नहीं देगी। जीवन में सच्ची प्रसन्नता का सूत्र है यह। श्रद्धेय स्वामी अवधेशानंद जी महाराज ने सुखी होने और परदुख हरने के सूत्र अपने व्याख्यानों में समय-समय पर तथा अनेक रूप में दिए हैं। इस पुस्तक में उन्हीं में से कुछ को प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है, इस पुस्तक का स्वाध्याय-मनन कर आपके जीवन से दुखों की आत्यंतिक निवृत्ति होगी। और आप अपने-परायों के बीच सुख को निरपेक्ष भाव से बांट सकेंगे।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
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