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Description
सफलता के चरण
भूमिका
सफल जीवन के विषय में मतभेद हो सकता है। आर्थिक सम्पन्नता भी सफल जीवन का लक्षण है और मानसिक तथा आत्मिक निर्मलता भी इसका लक्षण कही जा सकती है। यह भी कहा जाता है कि आर्थिक सम्पन्नता से दूसरी बातें भी सम्भव हैं। अतः इस विषय को न छूते हुए सफल जीवन की ओर बढ़ने के पगों पर ही इस पुस्तक को लिखने का यत्न किया गया है।
जीवन की सफलता, आर्थिक, मानसिक अथवा आत्मिक कुछ भी हो, उसको प्राप्त करने के लिए मार्ग एक ही है। इस ओर ले जाने के लिए प्रथम चरण है अपने ध्येय में दृढ़ निष्ठा। निष्ठाहीन व्यक्ति पथ में छोटी-सी भी बाधा उपस्थित होने पर विचलित होकर चलना छोड़ देता है। सब महापुरुष लगन के द्वारा महानता प्राप्त कर सके हैं। लगन निष्ठा का दूसरा नाम है।
लगन अर्थात् सिद्धि प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्न, सफलता के लिए आवश्यक होता हुआ भी ऐसा नहीं है कि सिद्धि दिला ही देगा। इसके लिए जिस पर चरण उठाए जाएँ, पथ भी उचित ही होना चाहिए। मिथ्या मार्ग पर चलनेवाला निष्ठावान व्यक्ति लक्ष्य से दूर हो जाएगा। एक परिश्रम करनेवाला व्यक्ति चोरी, ठगी, धोखा तथा झूठ बोलकर भी तो परिश्रम करता है। अतः परिश्रम करने में लगन भी, परिश्रम की दिशा मिथ्या होने पर, ध्येय तक पहुँचाने में सफल नहीं हो सकती। मार्ग उचित दिशा का ही होना चाहिए।
दिशा निश्चय करने के लिए विवेक अर्थात् युक्तियुक्त व्यवहार परमावश्यक है। युक्ति के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इत्यादि विकारों से मन को रिक्त होना चाहिए। युक्ति मन का विषय है। उक्त पाँच विकार मन को मलिन कर युक्ति में बाधा बन जाते हैं। अतएव मार्ग निश्चय करने में निर्मल मन ही समर्थ हो सकता है।
मार्ग निश्चय हो जाए, उस पर चलने अर्थात् ध्येयप्राप्ति में लगन भी हो जाए तो फिर अगला पग है गति। गति इतनी धीमी भी हो सकती है कि जीवन-काल में सफलता न मिले। अतः सफलता के चरणों में चलने की गति का भी ध्यान रखना योग्य है। ध्येय की ओर बढ़ने में गति लाने के उपायों में प्रायः भूल हो जाती है। इस भूल से बचने के लिए धर्माचरण की आवश्यकता है। धर्मानुकूल व्यवहार रखकर ही गति-सहित बढ़ना वांछनीय है।
ये हैं सफलता के चरण। प्रस्तुत उपन्यास इसी विषय पर लिखा गया है।
गुरुदत्त
प्रथम परिच्छेद
‘‘निर्धनता महान् अभिशाप है।’ इस कथन को रामसुमन ने कभी भी स्वीकार नहीं किया। जब वह दूसरों को यह कहते सुनता था तो वह उन्हें कहा करता था, ‘‘सुख-दुःख, अच्छाई-बुराई, मान-अपमान, ये सब मन की अवस्थाएँ हैं। इनका धन के होने अथवा न होने से कोई सम्बन्ध नहीं है।’’
रामसुमन का यह दृढ़ मत था कि धनियों का धन, बलवानों का बल और प्रभुओं का प्रभुत्व भगवान की कृपा का ही परिणाम है। उसका ही प्रताप सर्वत्र विद्यामान रहता है। अतः मुख्य बात राम की कृपा है, शेष सब गौण हैं। उसके मुख पर प्रायः यह दोहा रहता था—
हरि माया कृत दोष गुण, बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिय राम तजि काम सब, अस विचारि मन माहिं।।
रामसुमन सेठ कमलापति की कोठी में चौकीदार था। उसे सेठ जी की कोठी में काम करते सत्रह वर्ष हो गए थे, अतः वह घर का एक अंग-सा ही दिखने लगा था। रामसुमन का बड़ा लड़का रामनिरंजन तो पिता से भी अधिक सेठ जी के परिवार में घुला-मिला रहता था और यदि उसका वर्ण भी सेठ जी के बच्चों की भाँति गंदमी होता अथवा वह भी उन जैसे बढ़िया वस्त्र पहनता तो कभी भी कोई बाहरी व्यक्ति उसे सेठ जी के परिवार से बाहर का न समझता। रामनिरंजन गौर-वर्णीय हृष्ट-पु्ष्ट लड़का था और मोटे मशीनी मलेशिया कपड़े के घर के सिले हुए और घर पर ही धुले वस्त्र पहनता था। इस प्रकार सेठ जी के बच्चों के बीच खड़ा वह तो अलग प्रतीत होता था। उसे देखनेवालों के मुख से यही निकलता था, ‘लड़का तो सुन्दर है, परन्तु किसी निर्धन का प्रतीत होता है।’
रामसुमन को सेठ जी की कोठी के पिछवाड़े में नौकरों के क्वार्टरों में स्थान मिला हुआ था। इस गृह में एक कोठी थी, उसके सामने बरामदा और छोटा-सा सेहन था। कोठी की चारदीवारी के भीतर ही यह गृह बना था। इसके सेहन में रामसुमन अपनी गाय बाँधा करता था। गाय के गोबर इत्यादि के कारण स्थान यदि गंदा हो जाता तो इसे साफ-सुथरा रखने के लिए रामसुमन की पत्नी भगवती को विशेष परिश्रम करना पड़ता था।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2012 |
Pulisher |
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