Safdar : Vyaktitva Aur Krititva
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Description
सफदर
…हम क्यूँ निकलें पारम्परिक शैलियों की तलाश में ? वह परम्परा परम्परा नहीं, जिसे चिराग़ लेकर ढूँढ़ना पड़े। परम्परा वही है जो हमारे वर्तमान परिवेश में, हमारे माहौल में विद्यमान है; ऐसी परम्परा ख़ुद-ब-ख़ुद हमारी रचना-प्रक्रिया का हिस्सा बनती है। हर संवेदनशील कलाकार, हर सजग कलाकार अपनी मुख़तलिफ़ परम्पराओं से प्रभावित होता है। केवल वे कलाकार जो अपने समाज से पूरी तरह एलिएनेटिड हैं, वही अपनी परम्पराओं से प्रभावित नहीं होते, उन्हें प्रभावित नहीं करते। मसलन दिल्ली में अंग्रेजी थियेटर करनेवाले हमारे साथी।
कुछ साथियों का ख़याल है कि हमारे रंगकर्म में उस वक्त तक ‘भारतीयता’ नहीं आएगी, उसकी जड़ें, उसका मौलिक चरित्र उस वक्त तक लुप्त रहेगा जब तक उसे पारम्परिक शैलियों से समृद्ध न किया जाए। मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि ‘भारतीयता’ नाच-गानों, रिचुअल्ज़, पूजा-पाठ, बलि और कुसंस्कारों को दिखाने से नहीं आएगी, ऐसी भारतीयता तो सिर्फ आई.टी.डी.सी. के मतलब की ही हो सकती है या उन तथाकथित कलाकारों के मतलब की जो साधन-सम्पन्न शहरी दर्शकों और विलायती लाट साहबों को थियेटर, सिनेमा, पेंटिंग वगैरह के ज़रिए ‘दि रियल इंडिया’ दिखाना चाहते हैं–जादू-टोने, पूजा-पाठ और धर्म-दर्शन का रियल इंडिया, भूत-प्रेतों, सुरों-असुरों और साधु-सन्तों का रियल इंडिया, आध्यात्मिक शान्ति, शान्ति, शान्ति ओम्वाला रियल इंडिया !
यह एक्सपोर्ट-ओरियंटिड भारतीयता है, यह असली भारतीयता नहीं, यह हम सभी जानते हैं, हम सभी मानते हैं।
भारतीयता हमारे रंगमंच में तभी आएगी, जब रंगकर्मी वैज्ञानिक दृष्टिकोण लेकर, ईमानदारी और लगन के साथ मौजूदा भारतीय निज़ाम का अध्ययन, विश्लेषण शुरू करेंगे। एक ग़ैरवैज्ञानिक समझ को कितने ही पारम्परिक अन्दाज में क्यूँ न पेश करें, वह समझ गलत ही रहेगी।
– सफ़दर हाशमी
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2021 |
Pulisher |
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