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समय संवाद और स्त्री प्रश्न
‘‘यह तो तय है कि सृजन की क्रिया और मूल्यवत्ता के सवाल पर स्त्री-पुरुष के लेखन में भेद नहीं किया जा सकता, दोनों को मापने का पैमाना लेखन की अर्थवत्ता है फिर भी दोनों की जीवन स्थिति, अनुभव की रेंज, कर्त्तव्य अधिकार और जीवन दृष्टि की भिन्नता है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक कारणों से दोनों के कर्मक्षेत्र, दीक्षा, आत्मसंघर्ष भी अलग-अलग रहे हैं। स्त्री अपनी अस्मिता और समानता के अधिकार की स्वीकृति के लिए लड़ रही है, पुरुष के पास यह सब पहले से मौजूद है।’’
– राजी सेठ
‘‘घटना और किस्सागोई का कथा में अपने आरंभ से ही गहरा संबंध रहा है। उपन्यास जैसा कि हम सभी जानते हैं आज जिस स्वरूप में लिखे जा रहे हैं, वह एक विदेशी विधा रही है, जो अब हमारी भी हो गई है। अपनी शुरुआत में इसका मकसद मनोरंजन ही प्रमुखता रहा। इसलिए इसमें दिलचस्प किस्सागोई और घटनाओं की अहम भूमिका रही। बाद के दौर में उपन्यासों का स्वरूप और मकसद अगर कोई होता हो तो वह भी बदलता चला गया। वैचारिक बहसों ने भी उपन्यासों में अपनी जगह बनाई, मगर किस्सा अपनी जगह कायम रहा।
– ज्योत्सना मिलन
‘‘पश्चिम दर्शन के केंद्र में भोग और भौतिकता है। उनके मूल्य व्यक्ति केंद्रित होते हैं। वे प्राप्ति में विश्वास रखते हैं। हमारा दर्शन योग और इन्द्रिय निग्रह का है। हमारे मूल्य ‘स्व’ से नहीं, पर हित से जुड़े होते हैं। हम प्राप्ति से ज्यादा सुख त्याग में पाते है।’’
– सूर्यबाला
‘‘मूल्य क्षण का जहां तक सवाल है, यह आज के समय और व्यवस्था की संरचना से जुड़ा हुआ है। सामाजिक संरचना का मूलाधार आर्थिक व्यवस्था से निर्मित होता है। नई, आर्थिक व्यवस्था बाजारवाद पर आधारित है जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा है।’’
– नमिता सिंह
‘‘द. अफ्रीका में महात्मा गांधी के स्थल, जेलें जहां नेल्सन मंडेला रहे थे, देखीं। ‘फोनिक्स’ वह छोटा सा कस्बा है जहां गांधी जी ने मिला-जुला जीवन व्यतीत किया था, उसी जगह जहां कस्तूरबा गांधी जी ने ‘मैज्जा’ उठाने के लिए मना कर दिया था। वहां रहने वाले भारतीय सतह पर जैसे भी सहज हैं, भीतर ही भीतर अपने पुराने इतिहास के पन्नों में दबे शोषण तथा यातनाओं को जो उनके पूर्वजों ने कुली के रूप में सहन की थी, अभी भी भुला नहीं पाए हैं।’’
– कुसुम अंसल
‘‘बदलाव चाहना इन्सानी फितरत है और बदलाव आना भी चाहिए क्योंकि जड़ता, एकरूपता, दोहराव ऊब पैदा करता है खास कर कला के क्षेत्र में और इसीलिए तरह तरह से कलाकार, नए से नए प्रयोग करता है मगर यह प्रयोग उसी हद तक मन को भाता है जब तक उसका रस उस में पहले की तरह बचा हुआ हो।’’
– नासिरा शर्मा
‘‘मेरी रचना प्रक्रिया ऐसी है कि मैं सायास समाज या बाजार की जरूरत के अनुरूप रचना नहीं कर पाती। इसलिए जब जो उत्कट अनुभूति होती है, उसी की स्मृति के पुनर्सुजन से रचना उपजती है। कोई रचना महज गांव या महज शहर की नहीं होती। उसे जबरन एक खांचे में डाल कर नहीं देखा जाना चाहिए। देखेंगे तो समय और समाज की अत्यंत संकीर्ण और एकांगी तस्वीर सामने आएगी।’’
– मुदुला गर्ग
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Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2015 |
Pulisher |
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