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सत्संग के मोती
मोती अमूल्य है क्योंकि उसके निर्माण में विशेष घटित होता है। कहते हैं कि जब स्वाति नक्षत्र की बूंद सीप के खुले मुख में पड़ जाती है तो वह मोती बन जाती है। इस बूंद से ही सीप का मुख बंद हो जाता है अर्थात सीप की तृप्ति हो जाती है, वह कृतकृत्य हो जाती है।
सत्संग में भी कुछ ऐसा ही अलौकिक घटित होता है। आदि शंकराचार्य ने ‘भज गोविंदम्’ में इसकी सुंदर प्रक्रिया को इन शब्दों में व्यक्त किया है-
सत्संगत्वे नि:संगत्वं, नि:संगत्वे: निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चल चित्तं, निश्चल चित्ते जीवन्मुक्ति:।।
सत्संग से असंगता, असंगता से मोह का नाश, निर्मोह की स्थिति से चित्त की निश्चलता अर्थात स्थिरता और चित्त के स्थिर होने पर जीवन्मुक्ति की प्राप्ति होती है। जीवनमुक्ति ही अध्यात्म की सर्वोच्च स्थिति है।
इस पुस्तक का प्रत्येक आलेख आपको इस प्रक्रिया से गुजरने के लिए विवश करेगा-ऐसा हमारा विश्वास है।
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जीवन प्रवाह है
मानव जीवन तीन धरातलों पर जिया जा सकता है-पाशविक, मानवीय एवं दैवीय। पाशविक धरातल पर तो हम सभी जीते हैं, पर हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो मानवीय धरातल पर जीने का प्रयास करते हैं। अर्थात् जीवन में कुछ कर गुजरना चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति किसी न किसी क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ने का प्रयास करते हैं। दैवीय धरातल तक अपने को उठाने वाले गिने-चुने ही होते हैं। वे सद्गुणों के धनी होते हैं, इंसानियत की मिसाल बनते हैं और सबके काम आने का एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। सही अर्थ में मानव वही है जो पाशविक से मानवीय से दैवीय धरातल की ओर अग्रसर होने का प्रयास करता है।
जीवन प्रवाह का नाम है, ठहराव का नहीं। जीवन के प्रवाह को बेहतरी की दिशा में ले जाने में ही हमारी सफलता है। सिर्फ भौतिक बेहतरी ही नहीं बल्कि आत्मिक भी। बेहतरी की डगर घाटी से चोटी की ओर ले जाती है। इसके तीन सोपान हैं- आत्म पहचान, आत्म अनुष्ठान और आत्मोत्थान। आत्म पहचान का अर्थ है अपने स्वभावगत गुण का ध्यान। हम बहुधा दूसरों को पहचानने में लगे रहते हैं अपने को नहीं। पर ये दुनियाँ उसको पहचानती है जो स्वयं को पहचान पाता है। एक शायर ने सही कहा है-‘‘जमाने में उसने बड़ी बात कर ली, अपने से जिसने मुलाकात कर ली।’’ हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है-यस्य नास्ति आत्म प्रज्ञा शास्त्र: तस्य करोति किम्, लोचनाभ्याम् विहीनस्य दर्पण: किम प्रयोजनम्।
अर्थात् जिसे आत्मज्ञान नहीं होता, उसका शास्त्रों का ज्ञान बेकार है। जैसे कि नेत्रहीन के लिए दर्पण बेकार है। आज तो विज्ञान भी अपने ऐटीट्यूड को पहचानने पर जोर दे रहा है।
दूसरी सीढ़ी है-आत्म अनुष्ठान। इसका अर्थ है अपने स्वभावगत गुण को निखारने के लिए प्रयास करना। इसके लिए अभ्यास जरूरी है। यह मानव स्वभाव है कि हम आरामतलब जिंदगी जीना चाहते हैं और मेहनत से कतराते हैं। पर अपने गुणों को तराशने के लिए परिश्रम आवश्यक है। मेहनत का कोई विकल्प नहीं है अत: अपने गुणों में निपुणता लाने के लिए कर्मनिष्ठा जरूरी है।
तीसरी और अंतिम सीढ़ी है-आत्मोत्थान। यानी अपने को ऊंचे से ऊँचा उठाना। इसके लिए जीवन में ऊंचा लक्ष्य साधने की आवश्यकता है। यह वही कर सकता है जो अनुभव से जीने की कोशिश करता है। हम सामान्यत: आदत से जीते हैं, अनुभव से नहीं। जो अनुभव से सीखकर जिंदगी को संवारता है, वह बेहतरी के मार्ग पर चल पड़ता है। इंसानियत के चार मुख्य गुण हैं-सात्त्विक सोच, सुभाषिता, सदाचार और परोपकार। इन गुणों से मुक्त व्यक्ति को ही हम देवतुल्य कहते हैं। इस मार्ग पर आगे बढ़ें और अपना जीवन सार्थक बनाएं।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
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