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संवारें अपना जीवन
दो शब्द
जीवन न तो जन्म से शुरू होता है, और न ही मृत्यु पर समाप्त हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म को अव्यक्त का व्यक्त होना और मृत्यु को व्यक्त का अव्यत्त होना कहा है। आत्मा अतींद्रिय है, इसलिए सामान्य संसारी व्यक्ति, जो प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है, शरीर के अस्तित्व तक ही जीवन को मानता है।
सनातन वैदिक धर्म की मान्यता के अनुसार, जन्म-मृत्यु जीवन यात्रा के पड़ाव हैं। जीवनात्मा के जीवन में जन्म-मृत्यु का यह चक्र तब तक चलता रहता है, जब तक वह अपनी आखिर मंजिल पर नहीं पहुंच जाता। यह आखिरी पड़ाव ही आत्म साक्षात्कार है, इष्ट की प्राप्ति है। इस उपलब्धि के बाद सारी यात्रा समिट जाती है। इसके बाद कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता।
धर्म ग्रन्थों में 84 लाख योनियों का वर्णन आता है। इनमें जाकर जीवात्मा अपने कर्मों के फल को भोगती है। इसलिए इनकी संभावनाएं सीमित हैं। मनुष्य योनि का जो जगह-जगह गुणगान किया गया है, इसका कारण है इसका भोग योनि होने के साथ ही कर्मयोनि भी होना। इससे इसमें संभावनाएं भी अनंत हैं। इसी अर्थ में यह सुरदुर्लभ है। देवयोनि यद्यपि मनुष्य योनि से श्रेष्ठ है लेकिन उसमें सदैव अधःपतन का भय रहता है उसका अतिक्रमण करना उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं।
मनुष्य को कर्म की स्वतंत्रता है, इसलिए धर्मशास्त्रों की रचना मनुष्य के लिए की गई। सारे विधि-निषेध नियम मनुष्य के लिए बनाए गए-न तो ये पशु-पक्षियों आदि के लिए हैं, न ही देवताओं के लिए।
मनुष्य जीवन की सार्थकता विषय भोगों में लिप्त रहना नहीं है, क्योंकि इस संदर्भ में अन्य योनियों की अपेक्षा मनुष्य अत्यंत निर्बल है। चाहें तो अलग-अलग तुलना करके देख सकते हैं।
धर्मशास्त्रों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की चर्चा की गई है। पहले तीन को उन्होंने पुरुषार्थ कहा है जबकि मोक्ष को पर पुरुषार्थ। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम ये तीन उपलब्धियां हैं मनुष्य जीवन की। जबकि मोक्ष परम उपलब्धि है। धर्मशास्त्र इस विवेचन द्वारा यह स्पष्ट करते हैं कि यदि ‘मोक्ष’ की उपलब्धि नहीं हुई, तो तीनों की कोई सार्थकता नहीं है।
महामंडलेश्वर जूनापीठाधीश्वर श्री स्वामी अवधेशानन्द जी महाराज के प्रवचनों में इसी यथार्थ को तरह-तरह से समझने का आपको सुअवसर प्राप्त होता है। स्वामीजी द्वारा कहा गया एक-एक शब्द समूचे व्यक्तित्व को गहराई तक छूता है। महाराजश्री की प्रांजल भाषा का संपूर्ण रूप से स्पर्श करना दुष्कर कार्य है। लेकिन फिर भी मैंने जनहित के लिए उन्हीं की परम कृपा से उसे शब्दों में बांधने की, सुगमरूप से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। महाराजश्री के अनुसार, शरीर को सजाना-संवारना व्यावहारिक दृष्टि से यह मात्र आत्म प्रवंचना है—स्वयं को धोखा देना है। अपने जीवन में शरीर के बदलाव संकेत देते हैं कि मनुष्य को अपने व्यक्तित्व (चरित्र) को संवारना चाहिए।
इसी से लोक-परलोक संवरते हैं। आत्मिक विकास ही सच्चे अर्थों में स्वयं को संवारना है।
स्वामी जी ने श्रवण के साथ मनन, निदिध्यासन पर भी जोर दिया है। उनका परामर्श है कि श्रेय मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए जिस तरह संकल्प की आवश्यकता होती, उसे सिर्फ सत्संग, स्वाध्याय, सेवा और ईश्वर चिंतन से ही प्राप्त किया जा सकता है।
आप सबके जीवन में श्रेय का मार्ग प्रशस्त हो, हमारी यही शुभकामनाएं हैं।
– गंगा प्रसाद शर्मा
मैं बिलकुल निर्दोष हूं,
कहां हैं मुझमें दोष ?
मैं भूल करता आ रहा हूं न जाने कब से
स्वयं को दोषी समझने की
प्रकृति के गुण-दोषों को मैंने अपना माना
जो झूठ था—सफेद झूठ, उसे मैंने सच माना
लेकिन अब…
अब नोच डाला है मैंने तन-मन के दोषों को
संवार लिया है मैंने खुद को
और बन गया हूं स्वयं खुदा
जिसका स्पर्श तक नहीं कर सकते दोष
अब नहीं रहा है शेष कुछ भी पाना
मैं निर्दोष हूं
‘सोऽहम्’
– वेदांत तीर्थ
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
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