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Description
स्मृतियों का बाइस्कोप
शैलेन्द्र शैल अब तक हिन्दी जगत में कवि के रूप में उपस्थित रहे हैं। ‘स्मृतियों का बाइस्कोप’ पुस्तक के साथ वे संस्मरण की दुनिया में दाखिल हो रहे हैं। एक कवि को कभी न कभी गद्य लिखने का दबाव महसूस होता है। खासकर तब जब उसके अन्दर अपने दोस्त, सुख-दुख के साथी और साहित्य जगत के बुलन्द सितारों की यादें ठसाठस भरी हुई हों।
प्रस्तुत संग्रह में हमें एक तरफ आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, निर्मल वर्मा और डॉ. इन्द्रनाथ मदान मिलते हैं तो दूसरी तरफ़ ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, कुमार विकल और सतीश जमाली। लेखक इसलिए कहता है ‘इनमें उन लम्हों का लेखा-जोखा है जिन्हें मैंने बहुत शिद्दत से जिया है। ये संस्मरण जिन मित्रों, लेखकों, गुरुओं और परिजनों के बारे में हैं, मैंने उनके सान्निध्य में बहुत कुछ सीखा और पाया है।’ शैल के सम्पर्कों का दायरा बड़ा है। उन्होंने सातवें दशक के इलाहाबाद और उसके माहौल पर भी लिखने का जोखिम उठाया है। एक संस्मरण जगजीत सिंह पर है तो एक सन्तूर के बेजोड़ कलाकार पंडित शिवकुमार शर्मा पर भी। इन सभी संस्मरणों की खूबी यह है कि इनमें भावुकता की जगह भाव-प्रवणता और अतिकथन की जगह अल्पकथन की शैली अपनाई गयी है। प्रायः संस्मरण आँसू-छाप विकलता से भरे हुए होते हैं जिनसे गुजरना रुमाल भिगोने जैसा अनुभव होता है। शैलेन्द्र शैल ने अपने को ऐसी स्थिति में आने से जगह-जगह रोका है। कुमार विकल के बारे में वे कहते हैं, हम अकसर देर रात कॉफी हाउस से लौटते हुए उसकी (विकल की) पंक्तियाँ गुनगुनाया करते थे, ‘हाथीपोता पार्वती का ग्राम/जहाँ के सभी रास्ते ऊँघ रहे हैं। चन्द्रमुखी…पार्वती से पहले तुम हो/अधम शराबी देवदास के कटुजीवन का/पहला सुख हो/पार्वती से पहले तुम हो।’ शैल ने कुमार विकल का उत्थान और अवसान दोनों देखे हैं। शराब की चपेट से उसे कोई बचा नहीं पाया। शैल ने सन् 1971 का इलाहाबाद देखा है जब वह शहर साहित्यिक ज़िन्दादिली से भरा हुआ था। अश्क जी, अमृतराय, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया और नीलाभ की यादों से मिले-जुले आलेख का समापन ज्ञानरंजन और उनकी पत्रिका ‘पहल’ के प्रति सराहना से होता है ‘ज्ञारंजन और ‘पहल’ मेरे लिए समकालीन साहित्य से जुड़े रहने का बहुत बड़ा माध्यम रहे हैं। दोनों ने मेरे लिए साहित्यिक रोशनी की खिड़कियाँ खुली रखी।’
स्मृतियों का कोई भी बाइस्कोप तब तक पूरा नहीं होता जब तक रचनाकार की निजी स्मृतियाँ और घर-परिवार उसमें शामिल न हों। संग्रह के तीसरे व अन्तिम खंड में लेखक ने माँ पर आत्मीय संस्मरण ‘माँ का पेटीकोट’ दिया है। इसी तरह पत्नी उषा के साथ अपने प्रेम और दाम्पत्य को याद किया है ‘दर्द आएगा दबे पाँव’ में। इन सभी संस्मरणों की विशेषता यह है कि पहली पंक्ति से ही ये पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं। लेखक के स्वप्न और दिवास्वप्न हमारे स्मृति-कोश को समृद्ध करते चलते है। अज्ञेयजी के शब्दों में कहें तो, ‘संस्मरण में स्मृति जब आकार पाती है तो ठहरा हुआ समय मानो फिर एक बार चलने लगता है जैसे समय को किसी ने अपनी मुट्ठी में भर लिया हो और मौके पर मुट्ठी खोल दी हो।’
– ममता कालिया
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2017 |
Pulisher |
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