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सृजनात्मकता के आयाम : ममता कालिया
ममता कालिया उन उपन्यासकारों–कथाकारों में हैं जो विमर्शवादी लेखन में विश्वास नहीं करती। अपने पहले उपन्यास ‘बेघर’ (1971) के बाद उन्होंने कथा रचना में विपुल सृजन किया है और ‘नरक–दर–नरक’ (1975) और ‘दौड़’ (2003) जैसे उनके उपन्यास हिन्दी उपन्यासों में महत्त्वपूर्ण माने गए हैं। इस सातवें उपन्यास में उन्होंने अपने लिए जो कथानक चुना है वह परिवार की कथा है और इसलिए चैंकाने वाली है। क्या यह गतकालिक यथार्थ है ? इस बीच चुके के पुर्नस्मरण का औचित्य भावुकता में ही है ? दरअसल भूमण्डलीकरण और अस्मितावादी विमर्शों के नये दौर में कोई भी पारंपरिक कथा रचना चैंकाने वाली ही लगेगी। ‘दुक्खम सुक्खम’ पारंपरिक (किंवा–पारिवारिक ?) कथा रचना ही है – सादगी से दीप्त। यह सादगी अपने भीतर जिन संदेशों को समेटती है वह चालू मुहावरों में सामान्यतः दिखाई नहीं देने वाले संदेश है। इन्हें ठीक से समझने के लिए जरूरी है कि उपन्यास का पाठ किया जाए। यह उपन्यास पारिवारिकता का एक सघन चित्र उकेरता है। ममता कालिया विमर्शवादी रचनाकार नहीं हैं और तभी वे मुद्दों को व्यापकता में देखने का आग्रह करती हैं। उनके लिए स्त्री के सवाल देह मुक्ति के नहीं अपितु व्यापक मनुष्यता के सवाल हैं। ममता जी उपन्यास के लिए बेहद प्रचलित शैली का सहारा लेती हैं और इस पर भी वे सफल रही हैं तो इसका कारण उपन्यास की भाषा और प्रस्तुतीकरण की विश्वसनीयता में निहित है। भाषा के स्तर पर उपन्यास अत्यंत पठनीय है। आम बोल–चाल की सहज सरल भाषा, छोटे छोटे वाक्य ओर देसी शब्द।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2024 |
Pulisher |
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