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Description
स्त्री लम्बा सफर
मैं इस बारे में ज्यादा जिरह नहीं करना चाहती कि स्त्री-मुक्ति का विचार हमें किस दिशा में ले जायेगा, लेकिन मुझे हमेशा लगता रहा है, कि अपनी जिस संस्कृति के सन्दर्भ में मैं स्त्री-मुक्ति की चर्चा करना और उसके स्थायी आधारों को चीन्हना चाहती हूँ, उसमे पहला चिंतन भाषा पर किया गया था। जब डॉ शब्दों का संस्कृत में समास होता है, तो अक्सर अर्थ में अंतर आ जाता है। इसलिए स्त्री, जो हमारे मध्यकालीन समाज में प्रायः मुक्ति के उलट बंधन, और बुद्धि के उलट कुटिल त्रिया-चरित्र का पर्याय मानी गई, मुक्ति से जुड़ कर, उन कई पुराने संदर्भो से भी मुक्त होगी, यह दिखने लगता है। अब बंधन बन कर महाठगिनी माया की तरह दुनिया को नाचने-वाली स्त्री जब मुक्ति की बात करे, तो जिन जड़मतियों ने अभी तक उसे पिछले साथ वर्षों के लोकतान्त्रिक राज-समाज की अनिवार्य अर्द्धांगिनी नहीं माना है, उनको खलिश महसूस होगी। उनके लिए स्त्री की पितृसत्ता राज-समाज परंपरा पर निर्भरता कोई समस्या नहीं, इसलिए इस परंपरा पर उठाए उसके सवाल भी सवाल नहीं, एक उद्धत अहंकार का ही प्रमाण हैं।
इस पुस्तक के लेखों का मर्म और उनकी दिशा समझने के लिए पहले यह मानना होगा कि एक जीवित परंपरा को समझने के लिए सिर्फ मूल स्थापनाओं की नजीर नाकाफी होती है, जब तक हमारी आँखों के आगे जो घट रहा है, उस पूरे कार्य-व्यापार पर हम खुद तटस्थ निर्ममता से चिंतन नहीं, करते, तब तक वैचारिक श्रृंखला आगे नहीं बढ़ सकती।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2015 |
Pulisher |
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