Sumitra Nandan Pant Rachna Sanchayan

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Sumitra Nandan Pant Rachna Sanchayan

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260.00 250.00

In stock

260.00 250.00

Author: Kumar Vimal

Availability: 4 in stock

Pages: 484

Year: 2021

Binding: Paperback

ISBN: 9789387567153

Language: Hindi

Publisher: Sahitya Academy

Description

सुमित्रानंदन पंत रचना संचयन

बीसवीं शताब्दी के भारतीय अंतस् और मानस को समझने के लिए महाकवि पंत के वृहद रचनाकाश को जानना बहुत आवश्यक है। वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, ज्योत्स्ना, ग्राम्या, युगांत, उत्तरा, अतिमा, चिदंबरा (भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित) कला और बूढ़ा चाँद (साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत) तथा लोकायतन जैसे प्रबंध-काव्य के रचयिता पंत प्रगीत प्रतिभा के पुरोगामी सर्जक तथा कला-विदग्ध कवि के रूप में, व्यापक पाठक वर्ग में समादृत रहे हैं, यद्यपि उन्होंने नाटक, एकांकी, रेडियो-रूपक, उपन्यास, कहानी आदि विधाओं में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। पंत जी की समस्त रचनाएँ भारतीय जीवन की समृद्ध सांस्कृतिक चेतना से गहन साक्षात्कार कराती हैं। उन्होंने खड़ी बोली की प्रकृति और उसके पुरुषार्थ, शक्ति और सामर्थ्य की पहचान का अभिमान ही नहीं चलाया, उसे अभिनंदित भी किया। उनके प्रकृति वर्णन में हृदयस्पर्शी तन्मयता, उर्मिल लयात्मकता और प्रकृत प्रसन्नता का विपुल भाव है।

 

भूमिका

छायावादी चतुष्टय के कवियों के बीच सुमित्रानंदन पंत का रचना-काल सर्वाधिक विस्तृत था। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ-वर्ष (20 मई, 1900 ई.) में जन्मे पंत जी पंद्रह-सोलह साल की उम्र से यानी सन् 1915-16 ईस्वी से अपने मृत्यु वर्ष (28 दिसम्बर, 1977) तक लिखते रहे। इस तरह साहित्य-सर्जना के क्षेत्र में ये लगभग छह दशकों तक सक्रिय रहे।

छायावाद को मुख्यतः ‘प्रेरणा का काव्य’ मानने वाले इस कोमल-प्राण कवि ने हार नामक उपन्यास के लेखन से अपनी रचना-यात्रा आरंभ की थी, जो ‘मुक्ताभ’ के प्रणयन तक जारी रही। मुख्यतः कवि-रूप में प्रसिद्ध होने के अलावा ये प्रथम कोटि के आलोचक, विचारक और गद्यकार हैं। इन्होंने मुक्तक, लंबी कविता, गद्य-नाटिका, पद्य-नाटिका, रेडियो-रूपक, एकांकी, उपन्यास, कहानी इत्यादि जैसी विभिन्न विधाओं में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और लोकायतन तथा सत्यकाम—जैसे वृहत् महाकाव्य भी लिखें हैं। विधाओं की विविधता की दृष्टि से इनके द्वारा संपादित रूपाभ पत्रिका (सन् 1938 ईस्वी) की संपादकीय टिप्पणियाँ और मधुज्वाल की भावानुवादाश्रित कविताएँ भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। आशय यह कि विभिन्न विधाओं में उपलब्ध इनके विपुल साहित्य को एक नातिदीर्घ रचना-संचयन में प्रस्तुत करना कठिन कार्य है।

रचनाओं की विपुलता के साथ ही यह भी लक्ष्य करने योग्य है कि प्रकृति और नारी–सौंदर्य से रचनारंभ करनेवाले पंत जी मानव, सामान्य जन और समग्र मानवता की कल्याण-कामना से सदैव जुड़े रहे। इनकी मान्यता थी कि ‘आनेवाला मानव निश्चिय ही न पूर्व का होगा, न पश्चिम का।’’ ये सार्वभौम मनुष्यता के विश्वासी थे। अध्यात्म, अंतश्चेतना, प्रेम, समदिक् संचरण इत्यादि जैसा संकल्पनाओं से भावाकुल पंत के लेखन—चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु हमेशा ‘लोक’—पक्ष ही रहा, जो लोकायतन के नामकरण से भी संकेतित होता है। पंत-काव्य का तृतीय चरण, जो ‘नवीन सगुण’ के नाम से चर्चित है और जिसे हम शुभैषणा-सदिच्छा का स्वस्ति-काव्य कह सकते हैं, इसी ‘लोक’ के मंगल पर केन्द्रित है।

महात्मा गाँधी, कार्ल मार्क्स, श्री अरविन्द और अनेक विकासवादी-आशावादी दार्शनिकों से समय-समय पर प्रभावित-प्रेरित पंत एक ‘सर्वसमन्वयवादी’, ‘लोक’-पक्षधर दृष्टि रखते थे, अपने समकालीन हिन्दी कवियों की तुलना में ये अधिक पंथ-निरपेक्ष थे और

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  1. चिदंबरा की भूमिका, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 34,

 

रूढ़िग्रस्त मध्यकालीनता-वाद के विरुद्ध एक तर्क-युक्त ‘सोच’ रखते थे। शायद, इन सभी कारणों के एकजुट हो जाने से इनका कवि-मन कबीर की तरह रोता रहता था—‘मन कबीर-सा करता रोदन।’ इतना ही नहीं, छायावाद का अग्रणी कवि होते हुए इन्होंने प्रौढ़ि प्राप्त कर लेने के बाद अपने को ‘कबीर पंथी कवि’ कह दिया है—

सूक्ष्म वस्तुओं से चुन चुन स्वर

संयोजित कर उन्हें निरंतर

मैं कबीर-पंछी कवि

भू जीवन पट बुनता नूतन !

यह दूसरी बात ही कि पंत जी की प्रकृति-कविताएँ इनकी अन्य प्रकार की कविताओं की तुलना में अधिक टिकाऊ होंगी। इनकी प्रकृति-कविताओं की कालोत्तीर्ण विशेषता को, जिसका आधार कूर्मांचल, कत्यूर की घाटी, हिमालय और उसके प्रांतर का सौंदर्य है, रूस के साहित्य-विवेचकों ने भी लक्षित किया था। इसलिए जब इनकी चुनी हुई प्रकृति-कविताओं के रूसी अनुवाद का संकलन ‘गिमलाइस्कया तेत्राज़’ के नाम से मास्को से सन् 1965 ईस्वी में प्रकाशित हुआ, तब उसके प्रत्येक पृष्ठ को निकोलस रोरिक के हिमालय से संबंधित विभिन्न चित्रों की प्रतिकृति से मंडित कर मुद्रित किया गया। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पंत की प्रकृति-कविताओं के सन्दर्भ में चित्रकार ब्रूस्टर के प्रकृति-चित्रों पर भी विचार किया जाना चाहिए। वो वृद्ध अमरीकी चित्रकार मिस्टर ब्रूस्टर, मानों अल्मोड़ा में बस गए थे और उन्होंने वहाँ की पहाड़ियों तथा हिम-शिखरों की अनेक रंगमुखर छायाकृतियाँ अंकित की थीं, जो पंत जी को बहुत प्रिय थीं।

यह धारणा निभ्रान्त प्रतीत होती है कि कवि के रूप में पंत की अमरता इनकी प्रकृति-कविताओं में निहित है—ठीक उसी तरह, जिस तरह चित्रकार आइवाजेव्स्की और शॉविन्स्की की अमरता उनके प्रकृति-चित्रों में निहित है या श्रमजीवी उड़िया कवि गंगाधार मेहेर की अमरता उनके ग्रामाँचल संबलपुर की नैसर्गिक छवि को अंकित करने वाली उनकी प्रकृति-कविताओं पर निर्भर है। पंत की नवीन सगुणवादी कविताओं या उनके चेतना-काव्य को अनेक आलोचक ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की तरह शुभैषणा-काव्य या स्वस्ति-काव्य दूसरे शब्दों में मनुष्यता का सील-पथ-निरूपक काव्य मानते हैं और इनके छायावादोत्तर विचार-काव्य को श्री अरविन्द-दर्शन का ‘पद्यीकरण’ कहते हैं, किन्तु इनकी रुचि प्रकृति का स्वर्ण-काव्य अद्यपर्यन्त खड़ी बोली के सम्पूर्ण प्रकृति-काव्य की शिखर-छवि है। पंत का प्रकृति-बोध केवल रूप-रंग की दृश्य सीमाओं तक

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  1. शंखध्वनि, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 101.

 

सीमित नहीं था। रंग-रूप की सीमाओं का अतिक्रमण कर इन का प्रकृति-बोध सूक्ष्मतर गंध-साधना तक गया था। इसलिए पंतजी द्वारा रचित प्राकृतिक साहचर्य की कविताओं में केवल भौतिक प्रकृति का रूप-चित्रण नहीं मिलता, बल्कि उसका ‘भाव’-चैतन्य भी मिलता है। फलस्वरूप, इनके प्रकृति काव्य में शोभना प्रकृति के ‘रूप’ और ‘भाव’—दोनों का रागात्मक समेकन है। इन्हें यह ज्ञात है कि जब भूत-जगत मनोजगत के सन्निकर्ष में आता है, तब दृष्टि को प्रकृति-बोध होता है।

मनोजगत की निष्क्रिय अवस्था में प्रकृति के उपकरण केवल भूतात्मक संगठन बन जाते हैं। अतः इन्होंने अपने प्रकृति काव्य में प्रकृति को मनोरोग से रंजित कर उपस्थित किया है और प्रकृति के चेतन सौन्दर्य में मानव-चेतना की स्वर-संगति को भी मिला दिया है।

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Paperback

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Language

Hindi

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Publishing Year

2021

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