Taliban Ki Wapsi : Afghani Jihad Banam Ameriki Azadi
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तालिबान की वापसी : अफ़ग़ानी जिहाद बनाम अमेरिकी आज़ादी
नयी दुनिया बनाने के बारे में सोचने वाले सभी लोगों को तालिबान का उदय बेचैन करने वाला है। उन्हें डर है कि तालिबान के उदय के साथ परमाणु हथियार से सम्पन्न देशों का ख़ौफ़ टूट रहा है। जो तथाकथित स्थिर विश्वव्यवस्था बनी हुई है वह टूट सकती है। सम्भव है कि अन्य देशों में भी आतंकवाद और सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से तख़्तापलट हो और नयी शासन प्रणालियाँ कायम हों। यानी बीसवीं सदी का क्रान्ति का युग नये रूप में वापस आ सकता है। लेकिन उससे भी बड़ी चिन्ता दुनिया के पटल पर कट्टर शासन प्रणाली के उभरने की है। पहले सोवियत संघ के साम्राज्यवाद और बाद में अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के योद्धाओं ने इस्लाम का ऐसा कट्टर रूप तैयार किया है जिसकी सिहरन इस्लामी जगत के साथ पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है। यह प्रवृत्ति दुनिया के अन्य धर्मों और शासन प्रणालियों में प्रकट हो सकती है और वहाँ कट्टरता और उदारता की जंग तेज़ हो सकती है। उस डर से भारत भी परे नहीं है। भारत में कश्मीर के आतंकवाद को बढ़ावा मिलेगा ऐसा तमाम विशेषज्ञों का कहना है। हालाँकि ऐसा मानने वाले भी हैं कि अफ़ग़ानिस्तान अपने में ही इतना उलझा रहेगा कि उसे किसी और देश में सशस्त्र हस्तक्षेप का अवसर शायद ही मिले। लेकिन उससे प्रेरणा लेकर तमाम आतंकी संगठन भारत, पाकिस्तान, चीन और रूस में अलग-अलग ढंग की परेशानी खड़ी कर सकते हैं।
निश्चित तौर पर अमेरिका जिस तरह के स्थायी आजादी को अफगानिस्तान पर थोप रहा था वह ठीक नहीं था। वह उसमें सफल नहीं रहा। लेकिन उसकी जगह पर इस्लाम की शरीयत और अफगानिस्तान के क़बीलाई समाज की संहिता पश्तूनवली को मिलाकर जो अफ़ग़ानी जिहाद तैयार किया गया है वह भी ठीक नहीं है। लेकिन इन सारी स्थितियों के लिए सिर्फ़ इस्लाम और अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को दोष देना भी ठीक नहीं है। इन स्थितियों के लिए सोवियत संघ से लेकर अमेरिका, पाकिस्तान और सऊदी अरब सभी जिम्मेदार हैं। आज ज़रूरत जहाँ तालिबान को पूरी दुनिया से बहुत कुछ सीखने की है वहीं दुनिया को भी तालिबान से भी कुछ सबक लेने की ज़रूरत है। यह कट्टरता और उदारता की लड़ाई है, यह धर्म बनाम राजनीति की लड़ाई है तो यह पिछड़े और क़बीलाई समाज के साथ तथाकथित सभ्य समाज की लड़ाई भी है। सभ्य समाज को सभ्य तरीक़े से ही लड़ना चाहिए। उस मायने में महात्मा गाँधी हमें बहुत कुछ सिखा गये हैं। उन्होंने उन पश्तूनों को भी सिखाया था कि हथियारों से नहीं अहिंसा से लड़ो तो जो जीत मिलेगी वह स्थायी होगी। हालाँकि उनकी बात तात्कालिक रूप से सही नहीं निकली और भारत-पाक विभाजन के साथ भयंकर हिंसा जीती। उनके मित्र और शिष्य ख़ान अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान उसी क़बीले से थे जिस क़बीले से आज का तालिबान है। लेकिन सौ साल पहले का उनका आदर्श आज किसी की ज़ुबान पर नहीं है। क्योंकि वह समाज फिर हथियारों और पुश्तैनी दुश्मनी पर लौट आया है। क्या अफ़ग़ानिस्तान और बाकी दुनिया महात्मा गाँधी और सीमान्त गाँधी यानी ख़ान अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान की सुनेगी ?
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2022 |
Pulisher |
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