- Description
- Additional information
- Reviews (0)
Description
उपनिवेश अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध
सामान्यतः राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक अभिवेचन में राजनैतिक अभिवेचन को सर्वाधिक खतरनाक करार दिया जाना चाहिए, क्योंकि सत्ता शक्ति का मूल स्रोत है। धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक प्रतिबन्ध की राजनीति, बिना सत्ता के सहयोग के पनप नहीं सकती, दूसरी तरफ सत्ता अपनी राजनैतिक सफलताओं के लिए न केवल राजनैतिक विषयों में प्रतिबंध की राजनीति करती है बल्कि वह धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक जगत की ओर से चल रही प्रतिबन्ध की राजनीति का, अपनी सफलताओं के लिए उपयोग भी करती चलती है। बदले में धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक जगत को जिस संरक्षण की जरूरत होती है उसके लिए वह सदैव तत्पर रहती है।
‘प्रतिबन्ध की राजनीति’ का यह पाठ औपनिवेशिक कालीन शासन और व्यवस्थाओं के लिए तो सटीक है ही, साथ ही भारत सहित औपनिवेशिक चंगुल से मुक्त होकर स्वयं को लोकतंत्र घोषित कर चुके विश्व भर के तमाम देशों के लिए भी उतना ही सही है। वस्तुतः स्वतंत्रता का हनन ‘राज्य’ के मूल चरित्र में शामिल है। सच यह है कि, ‘लोकतंत्र’ और ‘राज्य’ दोनों परस्पर व्युत्क्रमानुपाती संस्थायें हैं। यह यूं समझा जा सकता है कि जिस समाज की संस्थाओं में जितना ‘लोकतंत्र’ अधिक बढ़ता जायेगा, वहां वहां राज्य की भूमिका कम होती जायेगी, इसलिये प्रयास पूर्वक राज्य द्वारा किसी देश या समाज की संस्थाओं की कार्य प्रणाली में ‘लोकतन्त्र’ कमजोर किया जाता है। चूंकि, विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, राज्य के इस खेल में बार-बार हस्तक्षेप उपस्थित करती रहती है, इसलिए वह प्रारम्भ से वर्तमान तक ‘प्रचलित व्यवस्थाओं’ के निशाने पर रही है।
– नरेन्द्र शुक्ल
Additional information
Authors | |
---|---|
Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
Reviews
There are no reviews yet.