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विश्वास और अंधविश्वास
विश्वास क्या है ? कब वह अंधविश्वास का रूप ले लेता है ? हमारे संस्कार हमारे विचारों और विश्वासों पर क्या असर डालते हैं ? समाज में प्रचलित धारणाएँ कैसे धीरे-धीरे सामूहिक श्रद्धा और विश्वास का रूप ले लेती हैं। टेलीविजन जैसे आधुनिक आविष्कार के सामने मोबाइल साथ में लेकर बैठा व्यक्ति भी चमत्कारों, भविष्यवाणियों और भूत-प्रेतों से संबंधित कहानियों पर क्यों विश्वास करता रहता है ? क्यों कोई समाज लौट-लौटकर धार्मिक जड़तावाद और प्रतिक्रियावादी-पश्चमुखी राजनीतिक और सामाजिक धारणाओं की तरफ जाता रहता है ? क्या यह संसार किसी ईश्वर द्वारा की गई रचना है ? या अपने कार्य-कारण के नियमों से चलनेवाला एक यंत्र है ? ईश्वर के होने या न होने से हमारी सोच तथा जीवन-शैली पर क्या असर पड़ेगा ? वह हमारे लिए क्या करता है और क्या नहीं करता ? क्या वह खुद ही हमारी रचना है ? मन क्या है, उसके रहस्य हमें कैसे प्रकाशित या दिग्भ्रमित करते हैं ? फल-ज्योतिष और भूत-प्रेत हमारे मन के किस खाली और असहाय कोने में सहारा बनकर आते हैं ? क्या अंधविश्वासों का विरोध नैतिकता का विरोध है ? क्या धार्मिक जड़ताओं पर कुठाराघात करना सामाजिक व्यक्ति को नीति से स्खलित करता है ? या इससे वह ज्यादा स्वनिर्भर, स्वायत्त, स्वतंत्र और सुखी होता है ? स्त्रियों के जीवन में अंधविश्वासों और अंधश्रद्धा की क्या भूमिका होती है ? वे ही क्यों अनेक अंधविश्वासों की कर्ता और विषय दोनों हो जाती हैं ?
इस पुस्तक की रचना इन तथा इन जैसे ही अनेक प्रश्नों को लेकर की गई है। नरेंद्र दाभोलकर के अंधविश्वास या अंधश्रद्धा आंदोलन की वैचारिक-सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक पृष्ठभूमि इस पुस्तक में स्पष्ट तौर पर आ गई है जिसकी रचना उन्होंने आंदोलन के दौरान उठाए जानेवाले प्रश्नों और आशंकाओं का जवाब देने के लिए की।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2023 |
Pulisher |
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