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Description
वृन्दा
मैं वृन्दा के बिना अपने होने की कल्पना भी नहीं करता। अब कैसे जिऊँगा और क्यों जिऊँगा अब मुझे भी कोई रोक नहीं सकता…पर हाँ वृन्दा जाने से पहले तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ-कहना चाहता हूँ…शास्त्री जी कुछ सँभलकर खड़े हो गए। सब उत्सुकता से उनकी ओर देखने लगे।
वृन्दा की ओर देखकर शास्त्री जी बोले-मुझे जीवन के अंतिम क्षण तक एक दुःख कचोटता रहेगा कि तुमने गीता पढ़ी तो सही, पर केवल शब्द ही पढ़े तुम ‘गीता’ को जीवन में जी न सकी। तुम हमें छोड़कर जा रही हो, यह आघात तो है ही, पर उससे भी बड़ा आघात मेरे लिए यह है कि मेरी वृन्दा गीता पढ़ने का ढोंग करती रही। जब युद्ध का सामना हुआ तो टिक न सकी। मुझे दुःख है कि तुमने ‘गीता’ पढ़कर भी न पढ़ी। वृन्दा ‘गीता’ सुनकर तो अर्जुन ने गांडीव उठा लिया था और तुम हमें छोड़कर उस विद्यालय के उन नन्हें-मुन्ने बच्चों को छोड़कर यों भाग रही हो…मुझे तुम पर इतना प्रबल विश्वास था। आज सारा चकनाचूर हो गया। ठीक है तुम जाओ…जहाँ भी रहो, सुखी रहो…सोच लूँगा, एक सपना था जो टूट गया।’’
अपनी बात
अपना पाँचवा उपन्यास ‘वृन्दा’ पाठकों को समर्पित करते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है। इसे लिखने में एक लंबा समय लग गया। कई बार लिखना शुरू किया, फिर रुकता रहा, रुक-रुककर लिखा जाता रहा। राजनीति व सार्वजनिक जीवन की व्यस्तताओं में बार-बार उपन्यास का लिखना बंद होता रहा। अब ‘वृन्दा’ का प्रकाशन हो रहा है, यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
हिमाचल प्रदेश में जब मैं मुख्यमंत्री रहा तो उस शासन काल के कुछ अनुभव इतने मर्मस्पर्शी थे कि वर्षों बीत जाने के बाद भी उन्हें भूल पाना संभव नहीं है। दो-तीन बार प्रदेश में कुछ स्थानों पर भयंकर वर्षा हुई। उसे अब ‘बादल फटना’ कहने लगे हैं। एकदम अचानक पानी बहा कि पूरे का पूरा गाँव उसकी लपेट में आ गया। मैं देखने गया। उस सर्वनाश को देख दिल दहल गया था पानी के बहाव में तीन मंजिले पक्के मकान नींव से उखड़कर कहीं दूर बिखरे पड़े थे। टनों वजन वाले पत्थर दीवारें तोड़कर कहीं के कहीं पहुँच गए थे। उस दृश्य को देखकर यह सोच पाना कठिन था कि दो ही दिन पहले वहाँ एक हंसता-खेलता गाँव बसा था। मिट्टी व पत्थर मिले पानी के तेज बहाव के तूफान ने देखते-देखते पूरे गाँव को श्मशान बना दिया था। बातचीत में कुछ वृद्ध लोगों ने बताया कि बादल फटने की ये घटनाएँ पुराने समय में नहीं होती थीं। जंगल कटे, धरती नंगी हो गई, मिट्टी का स्खलन बढ़ा, प्राकृतिक छलनी हुई तो अब ये प्रकोप होने लगे हैं।
विश्व-भर में मनुष्य ने विकास के नाम पर प्रकृति का चीरहरण किया है हिमाचल प्रदेश में हरे-भरे जंगलों को नष्ट किया गया है। मैंने यह सब निकट से देखा, रोकने की कोशिश की, समय मिला तो प्रदेश में ‘वन लगाओ-रोजी कमाओ’ व ‘स्मृति वन’ जैसी योजनाएँ शुरू कीं। केंद्र सरकार में गया तो ‘हरियाली’ और ‘स्वजलधारा’ योजना इसी उद्देश्य से शुरू हो गई थी।
प्रशासक के रूप में यह सब करने पर भी मेरे अंदर का लेखक संतुष्ट नहीं हुआ। प्रकृति के साथ हुई त्रासदी की चुभन सदा चुभती रही। उस सारी अनुभूति को एक साहित्यिक अभिव्यक्ति देने की इच्छा मन में थी।
‘वृन्दा’ उपन्यास में इसी पर्यावरण के विषय को एक आंचलिक प्रेम-कथा के ताने-बाने में गूँथने का प्रयत्न किया गया है। प्रेम-कहानी में पर्यावरण का विषय एक कठिन प्रयोग लगा था, मैंने उसे पूरा करने का प्रयत्न किया है। मेरे प्रयत्न की सफलता का निर्णय तो पाठक ही करेंगे।
यामिनी परिसर
पालमपुर, जिला काँगड़ा
हिमाचल प्रदेश
शान्ता कुमार
वृन्दा
शाम ढलने लगी थी। अंधकार ने धीरे-धीरे प्रकाश का स्थान लेना शुरू कर दिया था। बरसात का मौसम था, आसमान पर बादल छाए थे। ज्यों-ज्यों प्रकाश घटता गया और अंधकार बढ़ता गया, त्यों-त्यों सर्दी बढ़ने लगी थी। घर के चारों तरफ शांति थी। वृन्दा चुपचाप अनमने मन से घर के सभी काम निपटाती जा रही थी। उसने आँगन में झाडू लगा दी थी। घर के साथ पशुओं की घराल1 में जाकर गाय का दूध निकाल लिया था। दूध लाकर माँ के पास रख दिया। माँ ने दूध को चूल्हे पर चढ़ा दिया था। घराल में पशुओं को रात बैठने के लिए पात्री2 बिछाकर उनको चारा डालकर वह घर में लौट आई थी। वृन्दा यह काम रोज करती थी, तुरंत आज वह गुमसुम थी। कुछ बोल नहीं रही थी। माँ ने उससे कई बार पूछा। एक बार पिता ने भी पूछा, पर उसने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। वह एक यंत्र की तरह अपने जिस्मे के घर के सारे काम निपटाती जा रही थी ध्यान उसका कहीं और था, मन उसका कहीं और उड़ान भर रहा था।
घर के सारे काम निपटाकर वह कमरे के कोने में अपने पिता के पास बैठ गई। पिता ने इधर-उधर की बात करने की कोशिश की। वृन्दा ‘हाँ-हूँ’ मात्र करती रही। रसोई से आवाज आई खाना तैयार हो गया है।’ वह उठी, रसोई में गई। खाना खिलाने में माँ का हाथ बँटाने लगी। घर के नित्य-नियम के अनुसार सबसे पहले वृन्दा के पिता नन्दलाल और उसकी छोटी बहन तथा भाई ने खाना खाया। रसोई के कोने में लकड़ियों का चूल्हा जल रहा था। चूल्हे के एक तरफ पानी का एक बड़ा बर्तन रखा हुआ था। वृन्दा की मां रोटियाँ पका रही थी और वह अपने पिता, छोटी बहन तथा भाई को खाना खिला रही थी। बीच-बीच में कई बातें हुईं। सब कुछ न कुछ बोलते रहे, पर वृन्दा इस बातचीत में आज
- पशु बाँधने का कमरा
- पशु के बैठने के लिए पत्तों का बिछौना
कोई हिस्सा नहीं ले रही थी।
सब कुछ रोज की तरह चल रहा था और चलता रहा। सबको खाना खिलाने के बाद वृन्दा और उसकी माँ ने खाना, बर्तन साफ किए, रसोई को साफ किया और सब अपनी-अपनी सोने की जगह में चले गए। वृन्दा अपनी माँ के पास ही बिस्तर पर बैठ गई। माँ ने बड़े प्यार से उससे पूछा कि सुबह से ही गुमसुम क्यों है ? उसने यूँ ही टाल दिया। माँ सोने के लिए लेट गई और वृन्दा बैठी रही। कुछ देर के बाद उसने माँ से कहा कि उसे नींद नहीं आ रही, उसे स्कूल का भी कुछ काम करना है। यह सोचकर वह बिस्तर से उठी और बाहर कमरे में आकर बैठ गई।
मौसम बरसात का था। सर्दी बहुत अधिक नहीं थी। फिर भी यह गाँव पहाड़ के बिल्कुल ऊपर था। हवाएँ सीधी आती थीं। आसमान बादलों से घिरा था। बादल गहरे होते जा रहे थे। हवा की सनसनाहट की आवाज़ कच्चे मकान पर छाई हुई स्लेटों में से निकलती हुई एक तेज हुँकार-सी भर रही थी। छोटा-सा बिजली का बल्ब टिमटिमा रहा था। वृन्दा अपनी किताबें खोलकर पढ़ने का नाटक कर रही थी। ध्यान उसका कहीं और था।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2020 |
Pulisher |
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