Wah Hansi Bahut Kuch Kahti Thi
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वह हँसी बहुत कुछ कहती थी
मुझे लगता है कि जिस सृजनात्मक साहित्य, कला और संगीत को बाजार कमोडिटी में तब्दील नहीं कर पाता वह उससे डरता हैं। वह उसके खिलाफ तरह-तरह के प्रपंच रखता है। बाजार का यह डर दिनोदिन बढ़ रहा है। वह मनुष्य को सृजनात्मकता को एक निरर्थक चीज़ के रूप में पेश करने को कोशिश कर रहा है। वस्तुतः बाजार का यह प्रचार ही बाजार की पराजय का प्रमाण हैं।
बाजार की विजय के बड़बोलेपन में ही उसको पराजय अंतर्निहित है और सृजनात्मकता के प्रति निराशा में उसकी आशा और उसकी सार्थकता भी।
– इसी पुस्तक से
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2020 |
Pulisher |
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